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________________ १५ ] तिलोयपण्णत्ती [१. ११४छाह भंगुलेहि वादो बेवादेहि विहत्थिणामा य । दोण्णि विहत्थी हत्थो बेहत्थेहिं हवे रिक्कू ॥ ११४ बेरिक्कूहि दंडो दंडसमा जुगधणूणि मुसलं वा । तस्स तहा णाली वा दोदंडसहस्सयं कोसं ॥ ११५ चउकोसेहिं जोयण तं चिय वित्थारगत्तलमवढे । तत्तियमेत्तं घणफलमाणेज्ज करणकुसलेहिं ।। ११६ समववासवग्गे दहगुणिदे करणिपरिधओ होदि । वित्थारतुरिमभागे परिधिहदे तस्स खेत्तफलं ॥ ११७ उणवीसजोयणेसुं चउवीसेहिं तहावहरिदेसु । तिविहवियप्पे पल्ले घणखेत्तफला हु पत्तेकं ॥ ११८ उत्तमभोगखिदीए उप्पण्णविजुगलरोमकोडीभो । एक्कादिसत्तदिवसावहिम्मि च्छेत्तूण संगहियं ॥ ११९ अइवट्टेहि तेहि रोमग्गेहि णिरंतरं पढमं । अच्चतं णविदूणं भरियव्वं जाव भूमिसमं ॥ १२० दंडपमाणंगुलए उस्सेहंगुल जवं च जूवं च । लिक्खं तह कादूणं वालग्गं कम्मभूमीए ॥ १२१ । अवरंमज्झिमउत्तमभोगखिदीणं च वालअग्गाई। एक्केकमट्टघणहदरोमा ववहारपल्लस्स ॥ १२२ छह अंगुलोंका पाद, दो पादोंका वितस्ति, दो वितस्तियोंका हाथ, दो हाथोंका रिक्कू दो रिक्कूओंका दण्ड, दण्डके बराबर अर्थात् चार हाथप्रमाण ही धनुष, मूसल, तथा नाली, और दो हजार दण्ड या धनुषका एक क्रोश होता है ॥ ११४-११५ ॥ __ चार क्रोशका एक योजन होता है। उतने ही अर्थात् एक योजन विस्तार वाले गोल गरेका गणितशास्त्रमें निपुण पुरुषोंको घनफल ले आना चाहिये ॥ ११६ ॥ समान गोलक्षेत्रके व्यासके वर्गको दशसे गुणा करके जो गुणनफल प्राप्त हो उसका वर्गमूल निकालनेपर परिधिका प्रमाण निकलता है। तथा विस्तार अर्थात् व्यासके चौथे भागसे परिधिको गुणा करने पर उसका क्षेत्रफल निकलता है ॥ ११७ ॥ __ तथा उन्नीस योजनोंको चौबीससे विभक्त करने पर तीन प्रकारके पल्योंमेंसे प्रत्येकका धन क्षेत्रफल होता है ॥ ११८ ॥ उदाहरण- १ योजन व्यासवाले गोल क्षेत्रका घनफल१४१४१० = १०; V१०= १. परिधि; ?x = ३ क्षेत्रफल; ३:४१ = ३९ घनफल. उत्तम भोगभूमिमें एक दिनसे लेकर सात दिनतकके उत्पन्न हुए मैढेके करोड़ों रोमांक अविभागी खण्ड करके उन खण्डित रोमानोंसे उस एक योजन विस्तारवाले प्रथम पल्यको (गड़ेको) पृथिवीके बराबर अत्यन्त सघन भरना चाहिये ॥ ११९-१२०॥ ___ ऊपर जो ३९ प्रमाण घनफल आया है उसके दण्ड करके प्रमाणांगुल कर लेना चाहिये । पुनः प्रमाणांगुलोंके उत्सेधांगुल करना चाहिये। पुनः जौ, जूं, लीख, कर्मभूमिके बालान, जघन्य भोगभूमिके बालान, मध्यम भोगभूमिके बालान, उत्तम भोगभूमिके बालान, इनकी अपेक्षा प्रत्येकको आठके घनसे गुणा करनेपर व्यवहारपल्यके रोमोंकी संख्या निकल आती है ॥१२१-१२२॥ १ द युगवणूणि. २ व वित्थारं. ३ [ घणखेत्तफलं ]. ४ ब पत्तेका. ५ व अवरमझिम, ६ द एकिक'. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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