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हृद्गत
जिस संस्थाकी ओर से इस ग्रंथका प्रकाशन हो रहा है, उस जैन संस्कृति संरक्षक संघकी स्थापना एक पवित्र और महान् उद्देशको लेकर हुई है । इस ग्रंथरत्नका प्रकाशन उस महान कार्यका अंशमात्र है जिसमें निमित्तरूपसे कारण होनेका सुयोग मुझे प्राप्त हुआ है। इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूं । इस ग्रंथका सुचारु रूपसे सम्पादन अनुवादादिकी जिम्मेदारी बड़ी भारी है । यह मालाका सौभाग्य है कि माला के सम्पादन कार्यके लिये विद्वद्वर्य श्री. डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय तथा डॉ. हीरालालजी जैन जैसे सिद्धहस्त, अधिकार सम्पन्न, अनुभवी सम्पादक प्राप्त हुए है । आज विद्वत्संसार के सम्मुख प्रस्तुत ग्रंथरत्न उत्तम रीतीसे आ रहा है, इसका सारा श्रेय इन महाशयोंके अनुपम त्याग और वर्षोंके परिश्रमको है जिसके लिये सारा समाज उनका ऋण और कृतज्ञ रहेगा । परमात्मासे मेरी प्रार्थना है कि डाक्टरसाहब तथा प्रोफेसरसाहब दोनोंको दीर्घायु, आरोग्य और सुखशान्तिका लाभ होते हुए उनके द्वारा जिनवाणीकी सच्ची सेवा व्यापक और अविच्छिन्न रूपसे होती रहे ।
ब. जीवराज गौतमचन्द
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