SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५० ] तिलोयपण्णत्ती [४.२४४० पेलिजते उवही पवणेण तहेउ सीमंते। हिंडदि पायदि गयणे दंडसहस्साणि चत्तारि ॥२४४० दिवसं पडि अट्ठसयं तिहिदा दंडाणि सुककिण्हे य । खयवडी पुवुत्तयवट्ठिदवेलाए उवरि जलहिजलं ॥२४४१ पुह पुह दुतडाहिंतो पविसिय पणणउदिजोयणसहस्सा । लवणजले बे कोसा उदओ सेसेस हाणिचयं ॥ २४४२ अमवस्साए उवही सरिसो भूमीए होदि सिदपक्खे । कमेण वड्डाद हे कोसाणि दोणि पुण्णिमए ॥ २४४३ हाएदि किण्हपक्खे तेण कमेणं च जाव वडिगदं । एवं लोगावणिए गंथप्पवरम्मि णिढेिं ॥ २४४४. "एकरससहस्साणि जलणिहिणो जोयणाणि गयणम्मि । भूमीदो उच्छेहो होदि अवट्टिदसरूवेणं ॥ २४४५ तस्सोवरि सिदपक्खे पंचसहस्साणि जोयणा कमसो । वद्वेदि जलणिहिजलं बहले हाएदि तम्मेत्तं ॥ २४४६ पायालंते णियणियमुहविक्खंभे हदम्मि पंचेहि । णियणियपणिधीसु णहे सलिलकणा जंति तम्मेत्ता ॥ २४४७ ५००००। ५०००। ५०० । समुद्र वायुसे प्रेरित होकर सीमान्तमें फैलाता है और आकाशमें चार हजार धनुष पहुंचता है ॥ २४४० ॥ दं. ४०००। प्रतिदिन शुक्ल पक्षमें तीनसे भाजित आठसौ धनुषप्रमाण पूर्वोक्त अवस्थित वेलामें वृद्धि और कृष्ण पक्षमें प्रतिदिन उतनी ही हानि हुआ करती है ॥ २४४१ ॥ ४९९० = ८०० । पृथक पृथक् दोनों किनारोंसे पंचानबै हजार योजनप्रमाण प्रवेश करके लवणसमुद्रके जलमें दो कोस उंचाई व शेषमें हानि-वृद्धि है ॥ २४४२ ॥ ___ अमावस्याके दिन समुद्र भूमिके सदृश (समतल) होता है। पुनः शुक्लपक्षमें आकाशकी ओर क्रमसे बढ़ता हुआ पूर्णिमाको दो कोसप्रमाण बढ जाता है ॥ २४४३ ॥ ___ वही समुद्र जितनी वृद्धि हुई थी उतना कृष्ण पक्षमें उसी क्रमसे घट जाता है। इसप्रकार श्रेष्ठ ग्रंथ लोगाइणीमें बतलाया गया है ॥ २४४४ ॥ भूमिसे आकाशमें समुद्रकी उंचाई अवस्थितरूपसे ग्यारह हजार योजनप्रमाण है ॥ २४४५ ॥ ११०००। शुक्ल पक्षमें इसके ऊपर समुद्रका जल क्रमसे पांच हजार योजनप्रमाण बढ़ता है और कृष्ण पक्षमें इतना हो हानिको प्राप्त होता है ॥ २४४६ ॥ ५००० । पातालोंके अन्तमें अपने अपने मुखविस्तारको पांचसे गुणा करने पर जो प्राप्त हो, तत्प्रमाण आकाशमें अपने अपने पार्श्वभागोंमें जलकण जाते हैं ॥ २४४७ ॥ ज्ये. पा. ५०००० । म. प. ५००० । ज. पा. ५०० । १ द ब सम्मते. २ द किण्णे. ३ द ब सरिसे. ४ द कमवद्वेदि णहे, ब कमवड्डेदि गहेणं. ५ द ब पुण्णमिए. ६ द ब बहुवे लाएदि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy