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________________ -१. २१८५] चउत्थो महाधियारो [ ४२१ पुह पुह वीससहस्सा सम्मलिरुक्खाण दक्खिणे भागे । दसमखिदीए मज्झिमपरिससुराणं च वेणुजुगे ॥ २१७८ २०००० । २००००। पुह चउवीससहस्सा सम्मलिरुक्खाण णइरिदिविभागे । एक्कारसममहीए बाहिरपरिसामराण दोण्णं पि ॥ २१७९ २४०००।२४०००। सत्तेसु य अणिएसं अधिवइदेवाण सम्मलीरुक्खा। बारसमाए महीए सत्त च्चिय पच्छिमदिसाए ॥ २१८० लक्खं चालसहस्सा वीसुत्तरसयजुदा य ते सव्वे । रम्मा अणाइणिहणा संमिलिदा सम्मलीरुक्खा ॥ २१८१ १४०१२०। तोरणवेदीजुत्ता सपादपीढा अकिहिमायारा । वररयणखचिदसाहा सम्मलिरुक्खा विरायंति ॥ २१८२ वजिंदणीलमरगयरविकंतमयंकतपहुदीहिं । णिण्णासिअंधयारं सुप्पहरुक्खस्स भादि थलं ॥२१८३ सुप्पहथलस्सै विउला समंतदो तिणि होति वणसंडा । विविहफलकुसुमपल्लवसोहिल्लविचित्ततरुछण्णा ॥२१८४ तेसुं पढमम्मि वणे चत्तारो चउदिसासु पासादा । चउहिदतिकोसउदया कोलायामा तदद्धवित्थारा ॥२१८५ ३।१। । दशवीं पृथिवीके दक्षिणभागमें वेणुयुगलसम्बन्धी मध्यम पारिषद देवोंके पृथक् पृथक् बीस हजार शाल्मलीवृक्ष हैं ॥ २१७८ ॥ २०००० । २०००० । ग्यारहवीं भूमिके नैऋत्यदिग्विभागमें उक्त दोनों देवोंके बाह्य पारिषद देवोंके पृथक् पृथक चौबीस हजार शाल्मलीवृक्ष हैं ॥ २१७९ ॥ २४००० । २४००० । बारहवीं भूमिमें पश्चिमदिशाकी ओर सात अनीकोंके अधिपति देवोंके सात ही शाल्मलीवृक्ष हैं ॥ २१८० ॥ ७। रमणीय और अनादिनिधन वे सब शाल्मलीवृक्ष मिलकर एक लाख चालीस हजार एकसौ बीस हैं ।। २१८१ ॥ १४०१२० । तोरणवेदियोंसे युक्त, पादपीठोंसे सहित, अकृत्रिम आकारके धारक और उत्तम रत्नोंसे खचित शाखाओंसे संयुक्त वे सब शाल्मलीवृक्ष विराजमान हैं ॥ २१८२ ॥ सुप्रभवृक्षका स्थल वज्र, इन्द्रनील, मरकत, सूर्यकान्त और चन्द्रकान्तप्रभृति मणिविशेषोंसे अन्धकारको नष्ट करता हुआ सुशोभित होता है ॥ २१८३ ॥ सुप्रभस्थलके चारों ओर विविध प्रकारके फल, फूल और पत्तोंसे शोभित ऐसे नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त तीन विस्तृत वनखण्ड हैं ॥ २१८४ ॥ उनमेंसे प्रथम वनके भीतर चारों दिशाओंमें चारसे भाजित तीन कोस प्रमाण ऊंचे,एक कोस लंबे और इससे आधे विस्तारवाले चार प्रासाद हैं ॥ २१८५ ॥ को. है ।१।। १ द ब संमेलिदा. २ द ब तदं. ३ द सुप्पहच्छलस्स, ब सुप्पहबलस्स. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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