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________________ - ४. २१६८ ] उत्थो महाधियारो [ ४१९ दक्खिणसाद्दाए जिनिंदभवणं विचित्तरयणमयं । चउहिदतिकोसउदयं कोसायामं तदविस्थारं ॥ २१६० ३ । को १ । १ । २ जं पंडुगजिणभवणे भणियं णिस्सेसवण्णणं किं पि । एदस्सिं णादत्रं सुरदुंदुभिसद्दगहिरबरे ' ॥ २१६१ सेसासुं साहासुं को सायामा तदद्धविक्खंभों । पादोणकोसतुंगा हवंति एक्केपासादा ॥ २१६२ को १ । १ । ३ । २ ४ चउतोरणवेदिजुदा रयणमया विविधदिग्वधूवघडा । पजलंतरयणदीया ते सव्वे धयवदाइण्णा ॥ २१६३ सयणासणपमुद्दाणिं भवणेसुं णिम्मलाणि विरजाणिं । पकिदिमउवाणि तणुमणणयणाणदणसरूत्राणि ॥ २१६४ चेट्ठदि ते पुरेसुं वेणू णामेण वेंतरो देओ । बहुविहपरिवारजुदो दुइजओ वेणुधारिति ॥ २१६५ सम्मणसुद्धा सम्माइट्ठीण वच्छला दोण्णि । ते दसचाउत्तुंगा पत्तेक्कं पल्लएक्काऊ ॥ २१६६ सम्मलिदुमस्स बारस समंतदो होंति दिव्ववेदीओ । चउगोउरजुत्ताओ फुरंतवररयणसोहाओ ॥ २१६७ उस्लेघगाउदेणं' बेगाउदमेत्तउस्सिदा ताओ। पंचसया चावाणि रुंदेणं होंति वेदीओ ॥ २१६८ उसकी दक्षिण शाखा पर चारसे भाजित तीन कोसप्रमाण ऊंचा, एक कोस लंबा और लंबाई से आवे विस्तारवाला विचित्र रत्नमय जिनभवन है || २१६० ॥ को. १ । १ । ३ । पाण्डुकवन में स्थित जिन भवन के विषय में जो कुछ भी वर्णन किया गया है वही सम्पूर्ण वर्णन देवदुंदुभी बाजोंके शब्दोंसे अतिशय गम्भीर इस जिनेन्द्र भवन के विषय में भी जानना चाहिये ॥२१६१॥ अवशिष्ट शाखाओं पर एक कोस लंबे, इससे आधे विस्तारवाले और पौन कोस ऊंचे एक एक प्रासाद हैं ॥ २१६२ ॥ को. १ । ३ । । वे सब रत्नमय प्रासाद चार तोरणवेदियों से सहित विविध प्रकारके दिव्य धूपघटों से संयुक्त, जलते हुए रत्नदीपकों से प्रकाशमान और ध्वजा - पताकाओं से व्याप्त हैं ॥ २१६३ ॥ इन भवनोंमें निर्मल, धूलिसे रहित, शरीर, मन एवं नयनोंको आनन्ददायक और स्वभाव से मृदुल शय्यायें व आसनादिक स्थित हैं ॥ २१६४ ॥ उन पुरोंमे बहुत प्रकारके परिवार से सहित वेणु नामक व्यन्तर देव और द्वितीय वेणुधारी देव रहता है || २१६५ ॥ सम्यग्दर्शनसे शुद्ध और सम्यग्दृष्टियोंसे प्रेम करनेवाले उन दोनों देवोंमेंसे प्रत्येक दश धनुष ऊंचे व एक पल्यप्रमाण आयुसे सहित हैं ॥ २१६६ ॥ शाल्मलीवृक्षके चारों तरफ चार गोपुरोंसे युक्त और प्रकाशमान उत्तम रत्नोंसे सुशोभित बारह दिव्य वेदियां हैं ॥ २१६७ ॥ वेवेदियां उत्सेधकोससे दो कोसमात्र ऊंची और पांचसौ धनुषप्रमाण विस्तार से सहित हैं ॥ २१६८ ॥ १ द ब एदेसिं, २ द ब गहिरयरो. ३ द ब विक्खंभो ४ द उस्सेण गाउदेणं, व उस्सेण गाउदोणं. • Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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