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________________ -४. १८१२] चउत्थो महाधियारो [३७९ सत्तमयो तपरिही णाणाविहतरुगणेहिं परियरिया। एक्कारसभेदजुदा बाहिरदो भणमि तभेदे ॥ १८०४ णामेण भइसालं मणुसुत्तरदेवणागरमणाई । भूदारमणं पंचमभेदाई भइसालवणे ॥ १८०५ गंदणपहुदीएसुं गंदणमुवर्णदणं च सोमणसं । उवसोमणसं पंडू उर्वपंडुवणाणि दोदो दु ।। १८०६ सो मूले वजमओ एकसहस्सं च जोयणपमाणो। मज्झे वररयणमओ इगिलट्ठिसहस्सपरिमाणं ॥ १८०७ १०००। ६१०००। उवरिम्म कंचणमओ अडतीससहस्सजोयणाणं पि । मंदरसेलस्सीसे पंडुवणं णाम रमणिजं ॥ १८०८ सोमणसं णाम वर्ण साणुपदेसेसु णंदणं तह य । तत्थ चउत्थं चेदि भूमीए भद्दसालवणं ॥ १८०९ । जोयणसहस्समेक मेरुगिरिदस्स सिहरवित्थारं । एकत्तीससयाणि बासट्टी समधिया य तप्परिही॥ १८१० १००० । ३१६२। पंडुवणे अइरम्मा समंतदो होदि दिव्यतडवेदी । चरिहालयविउला जाणाविहधयडेहिं संजुत्ता ॥ १८११ धुव्यंतधयवदाया रयणमया गोउराण पासादा । सुरकिण्णरमिहुणजुदा बरिहिणपहदीहिं वीहि बरसदा ॥ १८१२ उस पर्वतकी सातवीं परिधि नाना प्रकारके वृक्षसमूहोंसे व्याप्त और बाहरसे ग्यारह प्रकार है । मैं उन भेदोंको कहता हूं ॥ १८०४ ॥ ___भद्रशालवनमें नामसे भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भूतरमण, ये पांच वन हैं ॥ १८०५॥ नन्दनादिक वनोंमें नन्दन और उपनन्दन, सौमनस और उपसौमनस, तथा पाण्डुक और उपपाण्डुक, इसप्रकार दो दो वन हैं ॥ १८०६ ॥ वह सुमेरुपर्वत मूलमें एक हजार योजनप्रमाण वज्रमय, मध्यमें इकसठ हजार योजनप्रमाण उत्तम रत्नमय, और ऊपर अड़तीस हजार योजनप्रमाण सुवर्णमय है । इस मन्दरपर्वतके शीशपर रमणीय पाण्डु नामक वन है ।। १८०७-१८०८॥ _ सौमनस तथा नन्दन वन मेरुपर्वतके सानुप्रदेशोंमें और चौथा भद्रशालवन भूमिपर स्थित है ॥ १८०९॥ मेरु महापर्वतके शिखरका विस्तार एक हजार योजन और उसकी परिधि इकतीससौ बासठ योजनसे कुछ अधिक है ॥ १८१० ।। १००० । ३१६२ । पाण्डुवनमें चारों ओर मार्ग व अट्टालिकाओंसे विशाल और नाना प्रकारकी ध्वजापताकाओंसे संयुक्त ऐसी अतिरमणीय दिव्य तटवेदी है ॥ १८११ ॥ ... फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे युक्त, सुर-किन्नर-युगलोंसे संयुक्त और मयूरप्रभृति पक्षियोंके शब्दोंसे मुखरित ऐसे गोपुरोंके रत्नमय प्रासाद हैं ॥ १८१२ ॥ १ द ब. तत्तमया. २ द ब तब्भेदो. ३ द ब गंदणमुहर्णदणं. ४ ब उवसंपडू. ५ द ब सेलस्स सीम. ६ दब वरिअट्टालय, ७ द धयवदेहिं.८द पिरिहण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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