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________________ ३०४ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४.१२१५ उसद्दतियाणं सिस्सा वीससहस्सा यणुत्तरेसु गढ़ा' । कमसो पंचजिणेसुं तत्तो बारससहस्वाणिं ॥ १२१५ भ २०००० । २०००० | २०००० | १२००० । १२००० । १२००० | १२००० | १२००० । तत्तो पंचजिणेसुं एक्कारसहस्सयाणि पत्तेकं । पंचसु सामिसु तत्तो एक्केके दससहस्वाणिं ॥ १२१६ ११०००। ११००० | ११००० | ११००० | ११००० | १०००० | १००००| १००००| १००००|१००००| अट्ठासीदिसयाणि कमेण सेसेसु जिणवरिंदेसुं । गयणणभभट्टसगसग दोअंककमेण सम्वपरिमाणं ॥ १२१७ ८८०० । ८८०० । ८८०० | ८८०० | ८८०० | ८८०० | संमेलिदा २७७८०० । | अणुत्तरं गदं । सद्विसहस्सा णवसयसहिदा सिद्धिं गदा जदीण गणा । उसहस्स अजियपहुणो एक्कसया सत्तहत्तरिसहस्सा ॥१२१८ ६०९०० । ७७१०० । सत्तरिसइस्सइगिसय संजुत्ता संभवस्स इगिलक्खं । दो लक्खा एक्कसयं सीदिसहस्साणि णंदणजिणस्स ॥ १२१९ १७०१०० । २८०१०० । ऋषभादिक तीन तीर्थंकरोंके क्रमसे बीस बीस हजार और इसके आगे पांच तीर्थंकरोंके बारह बारह हजार शिष्य अनुत्तर विमानों में गये हैं ।। १२१५ ॥ १२००० । ऋषभ २०००० । अजित २०००० । संभव २०००० । अभि. सुमति १२००० । पद्म १२००० । सुपार्श्व १२००० | चन्द्र १२००० । इसके आगे पांच तीर्थंकरोंमेंसे प्रत्येकके ग्यारह हजार और फिर पांच तीर्थकरों में से एक एकके दश हजार शिष्य अनुत्तर विमानों में गये हैं ।। १२१६ ॥ पुष्प. ११००० | शीतल विमल ११००० । अनंत कुंथु १०००० । अर १०००० । इसके आगे शेष जिनेन्द्रोंके क्रमसे अठासीसौ शिष्य अनुत्तर विमानोंमें गये हैं । अनुत्तर विमानोंमें जानेवाले इन सब शिष्योंका प्रमाण अंकक्रमसे शून्य, शून्य, आठ, सात, सात और दो, इन अंकोंसे निर्मित संख्याके बराबर है ॥ १२१७ ॥ मलि ८८०० । सुव्रत ८८०० | नमि ८८०० | नेमि ८८०० । पार्श्व ८८०० । वर्धमान ८८०० । सम्मिलित २७७८०० । ११००० | श्रेयांस ११००० । वासु. १०००० । धर्म १०००० । शान्ति Jain Education International अनुत्तर जानेवालोंका कथन समाप्त हुआ । भगवान् ऋषभनाथके साठ हजार नौसौ, और अजित प्रभुके सतत्तर हजार एकसौ यतिगण सिद्धिको प्राप्त हुए हैं ।। १२१८ ॥ ऋ. ६०९०० । अजि. ७७१०० । सम्भवनाथ स्वामी के एक लाख सत्तर हजार एक सौ और नन्दन जिनेन्द्र के दो लाख अस्सी हजार एकसौ यतिगण सिद्ध हुए हैं ।। १२१९ ॥ सं. १७०१०० । अभि. २८०१०० १ द व गदो. ११००० । १०००० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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