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________________ -४. ९२७ ] चउत्थो महाधियारो [२६५ णियणियजिणउदएणं बारसगुणिदेहिं सरिसउच्छेहा । उसहजिणप्पहुदीणं असोयरुक्खा विरायंति ॥ ११९ किं वणणेण बहुणा दट्टणमसोयपादवे एदे । णियउजाणवणेसुंण रमदि चित्तं सुरेसस्स ॥ ९२० ससिमंडलसंकासं मुत्ताजालप्पयाससंजुत्तं । छत्तत्तयं विरायदि सव्वाणं तित्थकत्ताणं ॥ ९२१ सिंहासणं विसालं विसुद्धफलिहोवलेहिं णिम्मविदं । वररयणणिकरखचिदं को सक्का वपिणताणं ॥ ९२२ णिभरभत्तिपसत्ता अंजलिहत्था पफुल्लमुहकमला । चेटुंति गणा सम्वे एकेक वेढिऊण जिणं ॥ ९२३) विसयकसायासत्ता हदमोहा पविस जिणपहूसरणं । कहिदु वा भब्वाणं गहिरं सुरदुंदुही रसइ ॥ ९२४ (रुणरुणरुणंतछप्पयछण्णा वरभत्तिभरिदसुरमुक्का । णिवडेंति कुसुमविट्ठी जिणिंदपयकमलमूलेसु ॥ ९२५) भवसयदंसणहेर्दु दरिसणमेतेण सयललोयस्स । भामंडलं जिणाणं रविकोडिसमुज्जलं जयइ ॥ ९२६ चउसद्विचामरहिं मुणाल कुंदेंदुसंखधवलेहिं । सुरकरपणश्चिदेहिं विजिजंता जयंतु जिणा ॥ ९२७ । अट्ठ महपाडिहेरा समत्ता । ऋषभादिक तीर्थंकरोंके उपर्युक्त चौबीस अशोकवृक्ष बारहसे गुणित अपने अपने जिनकी उंचाईसे युक्त होते हुए शोभायमान हैं ॥ ९१९ ॥ बहुत वर्णनसे क्या ? इन अशोक वृक्षोंको देखकर इन्द्रका भी चित्त अपने उद्यानवनोंमें नहीं रमता है॥ ९२० ॥ ___ सब तीर्थकरोंके चन्द्रमण्डलके सदृश और मुक्तासमूहोंके प्रकाशसे संयुक्त तीन छत्र शोभायमान होते हैं ॥ ९२१ ॥ उन तीर्थंकरोंका निर्मल स्फटिकपाषाणोंसे निर्मित और उत्कृष्ट रत्नोंके समूहसे खचित जो विशाल सिंहासन होता है, उसका वर्णन करनेके लिये कौन समर्थ होसकता है ? ॥ ९२२ ॥ गाढ भक्तिमें आसक्त, हाथोंको जोड़े हुए, और विकसित मुखकमलसे संयुक्त, ऐसे सम्पूर्ण गण प्रत्येक तीर्थकरको घेरकर स्थित रहते हैं ॥ ९२३ ॥ विषय-कषायोंमें अनासक्त और मोहसे रहित होकर जिनाभुके शरणमें जाओ, ऐसा भव्य जीवोंको कहने के लिये ही मानों देवोंका दुंदुभी बाजा गम्भीर शब्द करता है ॥ ९२४ ।। जिनेंद्र भगवान्के चरणकमलोंके मूलमें, रुण-रुण शब्द करते हुए भ्रमरोंसे व्याप्त और उत्तम भक्तिसे युक्त देवोंके द्वारा छोड़ी गई पुष्पवृष्टि गिरती है ॥ ९२५ ।। जो दर्शनमात्रसे ही सम्पूर्ण लोगोंको अपने सौ ( सात ? ) भवोंके देखने में निमित्त है और करोड़ों सूर्योके समान उज्ज्वल है ऐसा वह तीर्थंकरोंका प्रभामण्डल जयवन्त होता है ।।९२६॥ मृणाल, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा और शंखके समान सफ़ेद तथा देवोंके हाथोंसे नचाये गये ( ढोरे गये ) चौंसठ चामरोंसे वीज्यमान जिन भगवान् जयवन्त होवें ॥ ९२७ ।। आठ महाप्रातिहार्योंका कथन समाप्त हुआ। १बतित्थकत्तार. २द चेदिऊण. ३दब मोहो हद. TP. 34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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