________________
-४.९०७]
चउत्थो महाधियारो
[२६३
णिस्सदत्तं णिम्मलगत्तत्तं दुद्धधवलरुहिरतं । आदिमसंहडणतं समचउरस्संगसंठाणं ॥ ८९६ अणुवमरूवत्तं णवचंपयवरसुरहिगंधधारितं । अट्टत्तरवरलक्खणसहस्सधरणं अणंतबलविरियं ॥ ८९७ मिदहिदमधुरालाओ साभावियअदिसयं च दसभेदं । एवं तित्थयराणं जम्मग्गहणादिउप्पण्णं ॥ ८९८ जोयणसदमज्जादं सुभिक्खदा चउदिसासु णियराणा । णहगमणाणमहिंसा भोयणउवसग्गपरिहीणा ॥ ८९९ सव्वाहिमुहट्ठियत्तं अच्छायत्तं अपम्हफंदित्तं । विजाणं ईसत्तं समणहरोमत्तणं सजीवम्हि ॥ ९०० अट्टरसमहाभासा खुल्लयभासा सयाई सत्त तहा । अक्खरअणक्खरप्पय सण्णीजीवाण सयलभासाओ ॥ ९०१ एदासु भासासु तालुवदंतोट्टकंठवावारे । परिहरिय एक्ककालं भव्वजणे दिव्वभासित्तं ।। ९०२ पगदीए अक्खलिओ संझत्तिदयम्मि णवमुहुत्ताणि । णिस्सरदि णिरुवमाणो दिन्वझुणी जाव जोयणयं ॥९०३ सेसेसुं समएसुं गणहरदेविंदचक्कवट्टीणं । पाहाणुरूवमत्थं दिव्वझुणी अ सत्तभंगीहिं ॥ ९०४ छदव्वणवपयत्थे पंचट्ठीकायसत्ततश्चाणि । णाणाविहहेदहि दिव्वझुणी भणइ भव्वाणं ॥ ९०५ घादिक्खएण" जादा एक्कारस अदिसया महच्छरिया । एदे तित्थयराणं केवलणाणाम्म उप्पण्णे ॥ ९०६ माहप्पेण जिणाणं संखेजेसुं च जोयणेसु वणं । पल्लवकुसुमफलद्धीभरिदं जायदि अकालम्मि ॥ ९०७
खेदरहितता, निर्मलेशरीरता, दूधके समान धवल रुधिर, आदिका वर्षभनाराचसंहनन, समैचतुरस्ररूप शरीरसंस्थान, अनुपमरूप, नवचम्पककी उत्तम गन्धके समान गन्धका धारण करना, एक हजार आठ उत्तम लक्षणोंका धारण करना, अनन्त बल-वीर्य, और हित मित एवं मधुर भाषण, ये स्वाभाविक अतिशयके दश भेद हैं । यह दशभेदरूप अतिशय तीर्थंकरोंके जन्मग्रहणसे ही उत्पन्न हो जाता हैं ॥ ८९६-८९८ ॥
अपने पाससे चारों दिशाओंमें एकसौ योजनतक सुभिक्षता, औकाशगमन, हिंसाका अभाव, भोजनका अभाव, उपसर्गका अभाव, सबकी ओर मुखकरके स्थित होना, छायारहितता, निर्निमेष दृष्टि, विद्याओंकी ईशता, संजीव होते हुए भी नख और रोमोंका समान रहना, अठारह महाभाषा, सातसौ क्षुद्रभाषा, तथा और भी जो संज्ञी जीवोंकी समस्त अक्षरानक्षरात्मक भाषायें हैं उनमें तालु, दांत, ओष्ठ और कण्ठके व्यापारसे रहित होकर एक ही समय भव्य जनोंको दिव्य उपदेश देना । भगवान् जिनेन्द्रकी स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्य ध्वनि तीनों संध्याकालोंमें नव मुहूर्तोतक निकलती है और एक योजनपर्यन्त जाती है । इसके अतिरिक्त गणधरदेव, इन्द्र अथवा चकवर्तीके प्रश्नानुरूप अर्थके निरूपणार्थ वह दिव्य धनि शेष समयोंमें भी निकलती है । यह दिव्यध्वनि भव्य जीवोंको छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्वोंका नाना प्रकारके हेतुओंद्वारा निरूपण करती है । इसप्रकार घातियाकर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हुए ये महान् आश्चर्यजनक ग्यारह अतिशय तीर्थंकरोंको केवलज्ञानके उत्पन्न होने पर प्रगट होते हैं ॥८९९-९०६॥
तीर्थंकरोंके माहात्म्यसे संख्यात योजनोंतक वन असमयमें ही पत्र, फूल और फलोंकी वृद्धिसे संयुक्त हो जाता है; कंटक और रेती आदिको दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती
१द ब अपम्हयंदितं. २ दबवावारो. ३ दब जोयणं. ४ द ब पण्हाणरूवमत्थं. ५ दब पयत्थो. ६ द दिव्वज्झणि. ७ बघादिक्खएण य.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org