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________________ २२० ] तिलोयपण्णत्ती [४.४१०चंदप्पहमल्लिजिणा अद्ववपहुदीहिं जादवेरग्गा । सीयलओ हिमणासे उसहो णीलंजसाए मरणाओ ॥ ६१० गंधवणयरणासे गंदणदेवा वि जादवेरग्गा। इय बाहिरहदहिं जिणा विरागेण चिंतेंति ॥ ६॥ णिरएसु णत्थि सोक्खं णिमेसमेत 'पि णारयाण सदा। दुक्खोइ दारुणाई वट्टते पचमाणाणं॥६१२ जं कुणदि विसयर्लुद्धो पावं तस्सोदयम्मिणिरएसु । तिव्वा वेदणाओ पावतो विलवदि वसण्णो ॥६१३ खणमित्ते विसयसुहे जे दुक्खाइं असंखकालाई। पविसंति घोरणिरए ताण समो णत्थि णिब्बुद्धी॥६१४ अंधो णिवडइ कूवे बहिरो ण सुणेदि साधुउवदेसं । पेच्छंतो णिसुणतो णिरए जं पडइ तं चोजं ॥६१५ भोत्तण णिमिसमेत्तं विसयसुहं विसयदुक्खबहलाई । तिरयगदीए पावा चेटुंति अणंतकालाई ॥६१६ ताडणतासणबंधणवाहणलंछणविहेडणं दमणं । कण्णच्छेदणणासाविंधणाणलंछण चेव ॥ ६१७ छेदणभेदणदहणं णिप्पीडणगालणं छुधा तण्हा । भक्खणमहणमलणं विकत्तणं सीदमुण्डं च ॥ ६१८ चन्द्रप्रभ और मल्लिजिन अध्रुव (बिजली ) आदिसे, शीतलनाथ हिमके नाशसे, और भगवान् ऋषभदेव नीलंजसाके मरणसे विरक्तिको प्राप्त हुए ॥ ६१० ॥ गन्धर्व नगरके नाशसे अभिनन्दन स्वामी विरक्त हुए । इसप्रकार इन बाह्य हेतुओंसे विरक्त होकर वे तीर्थंकर चिन्तवन करते हैं ॥ ६११ ॥ __ नरकोंमें पचनेवाले नारकियोंको क्षणमात्र भी सुख नहीं है, किन्तु उन्हें सदैव दारुण दुःखोंका अनुभव होता रहता है ॥ ६१२ ॥ विषयोंमें लुब्ध होकर जीव जो कुछ पाप करता है उसका उदय आनेपर नरकोंमें तीव्र वेदनाओंको पाकर विषण्ण हो विलाप करता है ॥ ६१३ ॥ ___ जो लोग क्षणमात्र रहनेवाले विषयसुखके निमित्त असंख्यात कालतक दुःखोंका अनुभव करते हुए घोर नरकोंमें प्रवेश करते हैं उनके समान निर्बुद्धि और कोई नहीं है ॥ ६१४ ॥ ___ यदि अंधा कुएँमें गिरता है और बहिरा सदुपदेशको नहीं सुनता है तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं हैं, परन्तु जीव जो देखता व सुनता हुआ भी नरकमें पड़ता है यह आश्चर्य है ॥ ६१५ ॥ पापी जीव क्षणमात्र विषयसुखको भोगकर विषम एवं प्रचुर दुःखोंको भोगते हुए अनन्त कालतक तिर्यंच गतिमें रहते हैं ॥ ६१६ ।। तिर्यंच गतिमें ताड़ना, त्रास देना, बांधना, बोझा लादकर देशान्तरको लेजाना, शंखादिकके आकारसे जलाना, कष्ट पहुंचाना, दमन करना, कानोंका छेदना, नासाका वेधना, अण्डकोशको नष्ट करना, छेदन, भेदन, दहन, निष्पीडन, गालन, क्षुधा, तृष्णा, भक्षण, मर्दन, मलन, विकर्तन, शीत और उष्ण ( इत्यादिक दुख प्राप्त होते हैं ) ॥ ६१७-६१८ ॥ ...... ... १ द णिमेसमेत्तंमि. २ द दुक्खाई. ३ द वडते. ४ द ब लुद्धा. ५ द तिव्वाओ. ६ द खणमत्तो. ७दब अंधा. ८द ब विहेदणं. ९ द मेलिच्छणं, ब मेलच्छिणं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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