________________
[ १४ ]
1
आदशोंके साथ उनका जबरदस्ती मेल न कराकर उन्होंने हस्तप्रतियोंके पाठोंका ही अनुकरण किया है । अनेक स्थानोंपर संदिग्ध शब्दों व रूपों का समर्थन पिशलकृत ' प्रेमैटिक डेर प्राकृत स्प्राख ' ( स्ट्रासबर्ग १९०० तथा इण्डिअन एण्टीक्वेरीकी जिल्दोंमें छपी हुई उसकी शब्दसूची ) और हरगोविन्द शास्त्री कृत ' पाइअसद्दमद्दण्णवो ' ( कलकत्ता सं. १९८५ ) में प्रस्तुत की हुई सामग्री के प्रकाशमें किया गया है। जहां दोनों प्रतियोंका पाठ समान पाया गया है वहां पीछेके प्राकृत वैयाकरणोंकी स्वीकृति या अस्वीकृति की चिन्ता न करके भाषाप्रभेदसूचक चिह्नोंको सावधानी से सुरक्षित रक्खा गया है । संक्षेपमें, सम्पादकोंने प्रतियों के साथ यथासम्भव पूर्ण सम्पर्क रक्खा है तथा उन हस्तप्रतियों द्वारा प्रस्तुत पाठपरंपराका सच्चा और विवेकपूर्ण संरक्षण करना उनका सर्वत्र मार्गदर्शी नियम रहा है । जैसा कि ऊपर कह आये हैं, इसीके प्रारम्भिक प्रयोगस्वरूप ग्रन्थका एक भाग सम्पादकोंमेंसे एकके द्वारा पहिले भी सम्पादित किया गया था ( यतिवृषभकृत तिलोयपण्णत्ति भाग १, डा. ए. एन. उपाध्याय द्वारा सम्पादित व जैन सिद्धान्त भवन आरासे १९४१ में प्रकाशित ) तथा उसीके सम्बन्धमें धवलाके प्रधान सम्पादक प्रोफेसर 'हीरालाल द्वारा महत्त्वपूर्ण ज्ञातव्य बातें प्रकाशमें लाई गई । इसपरसे दोनोंको यह अनुभव हुआ कि उक्त दोनों प्रतियोंके पाठ अनेक जगह भ्रष्ट हैं, ऐसे ग्रन्थ उनके जीवन में केवल एक बार ही प्रकाशित हो सकते हैं तथा उन्हें केवल भाषाशास्त्रियों और पाठविवेचकोंकी आवश्यकताओंका ही ध्यान नहीं रखना है, किन्तु उन्हें उन धार्मिक पाठकों का भी विचार करना है जो इस ग्रन्थका उपयोग प्रधानतः उसके विषयके लिये करेंगे और जिनकी संख्या भी अपेक्षाकृत अधिक होगी । इन विचारों परसे उन्हें पाठोंमें कुछ संशोधन करनेकी आवश्यकता पड़ी । ये संशोधन ग्रन्थकारकी रचना के सुधाररूप नहीं हैं, किन्तु वर्णविभ्रान्ति, छन्द व प्रसंगको ध्यान में रखते हुए सम्पादकोंने केवल उस आधार
पाठपर पहुंचने का प्रयत्न किया है जहांसे उपलब्ध पाठविकार सम्भवतः प्रारम्भ हुए होंगे | सम्पादक कुछ काल तक इस दुविधा में पडे रहे कि ऐसे पाठ दिये कहां जाय ? उनके सामने दो मार्ग थे । एक तो यह कि दोनों प्रतियों में समानरूपसे पाये जाने वाले विकृत पाठ ही लिपिकारोंकी पीढ़ियोंद्वारा भ्रष्ट किये गये रूपों के भग्नावशेषस्वरूपसे मूल पाठ में ही रक्खे जांय । दूसरा मार्ग यह था कि संशोधित पाठ ही मूल पाठमें ग्रहण करलिया जाय और द व ब के भ्रष्ट दिखनेवाले पाठ नीचे टिप्पण में दे दिये जाय । कडे नियमके अनुसार प्रथम मार्ग ही वांछनीय था, किन्तु दूसरे मार्ग में कुछ व्यावहारिक सुविधायें दिखायी दीं । एक तो विषयमें रुचि रखनेवाले अधिकांश पाठक सार्थक पाठ ही पसंद करेंगे, और दूसरे जब हम हिन्दी अनुवाद मूल पाठके साथ दे रहे हैं तब उसकी संगति तो उसी संशोधित पाठसे ही बैठती है, न कि प्रतियों के भ्रष्ट पाठोंसे । पाठविवेचक विद्वानोंसे हमारी प्रार्थना है कि वे अपनी दृष्टि प्रतियों के पाठ देखने के लिये टिप्पणोंकी ओर रक्खें। कहीं कहीं कुछ दूरंदेशी संशोधन टिप्पणों में भी कोष्टक के भीतर रक्खे गये हैं । ये सब संशोधन केवल सम्भवनीय ही हैं और उनके स्थानपर अधिक
1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
·
www.jainelibrary.org