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________________ माक्कथन _ आजसे छह सात वर्ष पूर्व सन् १९३६ में जब आरा जैन सिद्धान्तभवनसे 'जैन सिद्धान्तभास्कर' नामक त्रैमासिकके पुनः प्रकाशनका निश्चय किया गया, तब पं. भुजबलिजी शास्त्रीने मुझे तथा मेरे प्रिय मित्र आदिनाथ उपाध्यायको भी उसके सम्पादकोंमें सम्मिलित करना आवश्यक समझा । उपाध्यायजीने उसी समय यह प्रस्ताव किया कि 'तिलोयपण्णत्ती' ग्रंथका मूल पाठ उक्त त्रैमासिकमें क्रमशः निकाला जाय । इसे हम सबने स्वीकार कर लिया और तभीसे उपाध्यायजी द्वारा सम्पादित ' तिलोयपण्णत्ती' का मूल पाठ एक फार्मके प्रमाणसे ' भास्कर' के प्रत्येक अंकों निकलने लगा। . सन् १९३८ में हमने षटखंडागमका सम्पादन-प्रकाशन प्रारम्भ किया। उस समय ज्ञात हुआ कि षट्खंडागमकी धवला टीकामें उसके लेखक वीरसेनाचार्यने 'तिलोयपण्णत्ती' के पाठ व विषयका अनेक स्थानोंपर उपयोग किया है। उन स्थलोंपर तुलनात्मक टिप्पण आदिके लिये जब भास्करमें प्रकाशित पाठको सूक्ष्मतासे देखा तब अनुभव हुआ कि इस महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रंथका एक अच्छा संस्करण शीघ्र प्रकाशित किये जानेकी आवश्यकता है। इस विषयपर कुछ विचार-विनिमय उस समय हुआ जब उपाध्यायजी धवलाके प्रथम भागकी तैयारीके समय उस ग्रंथके संशोधनसम्बंधी नियम निश्चित करने में हमारी सहायताके लिये अमरावती आये और कोई १०-१२ दिन हमारे साथ रहे। इसके पश्चात् मेरी इच्छा ‘तिलोयपण्णत्ती' को सुसम्पादित होकर ग्रंथरूपमें पानेके लिये उत्तरोत्तर बढ़ती गई और मैने उपाध्यायजीसे अपनी इच्छाकी पूर्तिके लिये प्रेरणा की। हमने प्रथम तो यह उचित समझा कि यदि जैन सिद्धान्तभवन आरासे ही ग्रंथ पुस्तकाकार शीघ्र निकाला जा सके तो अच्छा होगा। किन्तु उसकी शक्यता न जानकर उनकी ही अनुमतिसे दूसरा प्रबंध सोचा। मेरे पास कारंजा सीरीजकी पुस्तकोंकी विक्रीसे एकत्र हुआ कुछ द्रव्य था । अतएव पं. नाथूरामजी प्रेमीके परामर्शसे हमने उसी सीरीजमें इस ग्रंथको निकालनेका विचार कर लिया और उपाध्यायजीको तदनुसार सूचना दे दी। उपाध्यायजी भी तत्परतासे कार्यमें जुट गये। उन्होंने ग्रंथकी और भी हस्तलिखित प्रतियोंका संग्रह किया और सम्पादित पाठ-पाठान्तरसम्बन्धी टिप्पणियों सहित हमारे पास भेजने लगे। उस समय धवलाके संशोधन कार्यमें सहायक मेरे पास पं. हीरालालजी और पं. फूलचन्द जी ये दो शास्त्री थे। किन्तु तिलोयपण्णत्तिके प्रकाशनकार्यको भी व्यवस्थित रूपसे गतिशील बनानेके लिये एक अलग सहायक की आवश्यकता प्रतीत हुई। अतएव सन् १९४० के अक्टूबर मासमें पंडित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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