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५० ]
एदाणि सव्वमेलिदै एत्तियं होदि - = ४३६४०५६
४ ९
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तस्स ठवणा
तिलोयपण्णत्ती
केवलणाणतणेत्तं चोत्तीसादिसयभूदिसंपण्णं । णाभेयजिणं तिहुवणणमंसणिज्जं णमंसामि ॥ २८३ एवमाहरियपरंपरागयतिलोय पण्णत्तीए सामण्णजग सरूवणिरूवणपण्णत्ती णाम
पढमो महाधियारो सम्मत्तो ॥ १ ॥
३४४०००
४९
।
एहिं दोहिं खेत्ताणं विदफलं संमेलिय सयललोयम्मि अवणीदे अवसेसं सुद्धायासपमाणं होदि ।
इस सबको मिलाने पर निम्नप्रकार प्रमाण होता है
१२६०००० ४१६००० ५३२००० ६००००० ६२०००० ५५२०००
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४९
४९
४९
४९
४९
४९ ४३६४०५६ X ४९
४९
उपर्युक्त इन दोनों क्षेत्रोंके ( वातावरुद्धक्षेत्र और आठ भूमियोंके ) घनफलको मिलाकर उसे सम्पूर्ण लोक में से घटा देनेपर अवशिष्ट शुद्ध आकाशका प्रमाण होता है । उसकी स्थापना यह है - (देखो मूल पाठ ? )
८ + =
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[ १.२८३
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केवलज्ञानरूपी तीसरे नेत्रके धारक, चौंतीस अतिशयरूपी विभूतिसे सम्पन्न, और तीनों लोकोंकेद्वारा नमस्करणीय, ऐसे नाभेय जिन अर्थात् ऋषभ जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूं ॥ २८३ ॥
इसप्रकार आचार्य परंपरागत त्रिलोक- प्रज्ञप्ति में सामान्यजगखरूपनिरूपणप्रज्ञप्तिनामक
प्रथम महाधिकार समाप्त हुआ.
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