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________________ तिलोयपण्णत्ती [१.२२१ पण्णरसहदा रज्जू छप्पण्णहिदा तहाण वित्थारो । पत्तेकंतकरणे खंडिदखेत्तेण चूलिया सिद्धा ॥ २२॥ पणदालहदा रज्जू छप्पण्णहिदा हवेदि भूवासो । उदो दिवडरज्जू भूमितिभागेण मुहवासो ॥ २२२ भूमीए मुहं सोहिय' उदयहिदे भूमुहादु हाणिचया । छक्केककुमुहरज्जू उस्सेहा दुगुणसेढीए ॥ २२३ तक्खयवद्धिविमाणं चोदसभजिदाइ पंचरूवाणि । णियणियउदए पहदं आणेज तस्स तस्स खिदिवासं ॥ २२॥ मेरुसरिच्छम्मि जगे सत्तट्ठाणेसु ठविय उड्ढुई । रज्जूभो रुंदढे वोच्छं' गुणयारहाराणि ।। २२५ छब्बीसब्भहियसयं सोलसएक्कारसादिरित्तसया । इगिवीसेहि विहत्ता तिसु हाणेसु हवंति हेटादो ॥ २२६ -१२६-११६/-१११ १४७ १४७ १४७ । पन्द्रहसे गुणित और छप्पनसे भाजित राजुप्रमाण चूलिकाके प्रत्येक तटोंका विस्तार है। उस प्रत्येक अंतवर्ती करणाकार अर्थात् त्रिकोण खण्डित क्षेत्रसे चूलिका सिद्ध होती है ॥ २२१ ॥ १२ x १६ - १ राजु. चूलिकाकी भूमिका विस्तार पैंतालीससे गुणित और छप्पनसे भाजित एक राजुप्रमाण (५६ राजु) है। उसी चूलिकाकी उंचाई डेढ राजु (१३ ) और मुखविस्तार भूमिके विस्तारका तीसरा भाग अर्थात् तृतीयांश (३५) है ॥ २२२ ॥ ___ भूमिमेंसे मुखको घटाकर शेषमें उंचाईका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना भूमिकी अपेक्षा हानि और मुखकी अपेक्षा वृद्धिका प्रमाण होता है। यहां भूमिका प्रमाण छह राजु, मुखका प्रमाण एक राजु, और उंचाईका प्रमाण दुगुणित श्रेणी अर्थात् चौदह राजु है ॥ २२३ ॥ ___ उदाहरण- ६ - १ १४ = १४ हा. वृ. का प्रमाण प्रत्येक राजुपर । हानि और वृद्धिका वह प्रमाण चौदहसे भाजित पांच, अर्थात् एक राजुके चौदह भागोंमेंसे पांच भागमात्र है। इस क्षयवृद्धिके प्रमाणको अपनी अपनी उंचाईसे गुणा करके विवक्षित पृथिवीके (क्षेत्रके ) विस्तारको ले आना चाहिये ॥ २२४ ॥ मेरुके सदृश लोकमें, ऊपर ऊपर सात स्थानोंमें राजुको रखकर विस्तारको लानेकेलिये गुणकार और भागहारोंको कहता हूं ॥ २२५॥ नीचेसे तीन स्थानोंमें इक्कीससे विभक्त एकसौ छब्बीस, एकसौ सोलह और एकसौ ग्यारह गुणकार है ॥ २२६॥ ७४ १२६ १ ७x११११११ १४७ - २१. २. १द मुहवासो, ब मुहसोही. २ द कुमह. ३ द ब अणेजयत्तस्स. ४ द रुंदे वोच्छं, परुंदे दो वोच्छं. ५ ब इगवीसे वि', द इगवीसे वि तहत्था तिसु ठाणेसु ठविय हवंति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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