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३६२ पउमचरियं
[५५.२० जुझं समुज्जया ते. कहकह वि निवारिया य भिच्चेहिं । निययभवणाणि नीया, इन्दइ तह भाणुयण्णेहिं ॥२०॥ रुट्टो भणइ दहमुहो, निक्खमउ बिहीसणो मह पुरीओ। पडिकूलमाणसेणं, ठिएण किं तेण दुटेणं॥ २१ ॥ सो एव भणियमेत्तो, बिहीसणो निग्गओ पुरवरीओ । अक्खोहिणीसु सहिओ, तीसाए पवरसेन्नस्स ॥ २२ ॥ वज्जिन्दुघणेभा वि य, विजषयण्डासणी य घोरा य । कालाइमहासुहडा, बिभीसणस्साऽऽसणसहीणा ॥ २३ ॥ सबल-परिवारसहिया, नाणाविहजाण-वाहणारूढा । छायन्ता गयणयलं, हंसद्दीवम्मि अवइण्णा ॥ २४ ॥ द8 बिहीसणबलं, नाओ च्चिय वाणराण आकम्पो । दारिद्दियाण नज्जइ, हिमवायहयाण हेमन्ते ॥ २५ ॥ पउमो वज्जावत्तं, गेण्हइ लच्छीहरी वि रविभासं । अन्ने वि आउहकरा, जाया कइसेन्नसामन्ता ॥ २६ ॥ जाव य वाणरसेन्न, जायं चिय गहियपहरणावरणं । ताव य बिहीसणेणं, रामस्स पवेसिओ दूओ ॥ २७ ॥ नमिऊण रामदेवं, दूओ परिकहइ परिफुडं सबं । सीयाएँ कारणेणं, भाइविरोहं जहावत्तं ॥ २८ ॥ मज्झ तुम इह सरणं, बिभीसणो भणइ नत्थि संदेहो । आणादाणेण पहू!, सम्माणं मे पयच्छाहि ॥ २९ ॥ एयन्तरमि रामो, मन्तीहि समं तओ कुणइ मन्तं । मइसायरो पवुत्तो, मह वयणं ताव निसुणेहि ॥ ३० ॥ छम्मेण कयाइ पहू!, बिहीसणो पेसिओ दहमुहेणं । अहवा कलुसं पि जलं, खणेण विमलत्तणमुवेइ ॥ ३१ ॥ अह भणइ मइसमुद्दो, मन्ती सत्थागमाण उप्पत्ती । जंपइ जणो विरोहो, जह जाओ ताण दोण्हं पि ॥ ३२ ॥ अन्नं च पहू! सुबइ, बिहीसणो धम्म-नोइ-मइकुसलो। कह कुणइ असब्भावं, तुज्झुवरि एरिसगुणो वि! ॥ ३३ ॥ अहवा किं न विरोहो, हवइह एक्कोदराण लोभेणं । नह वत्तं अक्खाणं, तं एगमणा निसामेहि ॥ ३४ ॥ गिरिभूई गोभूई, दो वि जुवा णेमिसे परिवसन्ति । तत्थेव सूरदेवो, राया महिला मई तस्स ॥ ३५ ॥
सा ताण देइ दाणं, विप्पाणं सुकयकारणट्टाए । हेमं पुण पच्छन्नं, सुविसुद्धं सुप्पभूयं च ॥ ३६ ॥ लिए उद्यत उन दोनों को किसी तरह भृत्योंने रोका। इन्द्रजित तथा भानुकर्णके द्वारा वे अपने अपने मकानमें ले जाये गये। (२०) रुष्ट रावणने कहा कि मेरी नगरीमेंसे विभीषणको निकाल दो। प्रतिकूल मानसवाले उस दुष्टका यहाँ रहनेसे क्या प्रयोजन ? (२१) इस प्रकार कहा गया विभीषण तीस अक्षौहिणी उत्तम सेनाके साथ नगरीमेंसे बाहर निकला । (२२) वन्दु, घनेभ, विद्युत्, प्रचण्डाशनि, काल आदि विभीषणके अधीन रहनेवाले भयंकर महासुभट अपने समग्र परिवारके साथ नानाविध यान एवं वाहन पर सवार होकर गगनतलको छाते हुए हंसद्वीपमें उतरे। (२३-२४) विभीषणकी सेनाको देखकर हेमंतकालमें बर्फिली हवासे पीड़ित दरिद्रकी भाँति वानर काँपने लगे। (२५) रामने वावर्त धनुष और लक्ष्मणने सूर्यहास तलवार उठाई। वानर सैन्यके दूसरे सामन्तोंने भी हाथमें आयुध धारण किये । (२६) जबतक वानरसैन्यने शस्त्र एवं कवच धारण किये तबतक तो विभीषणने एक दूत रामके पास भेजा । (२७) रामको नमन करके दूतने सीताके कारण भाइयों में जो विरोध हुआ था वह सब यथावत् स्पष्ट रूपसे कह सुनाया। (२८) 'आप मेरे लिए शरण रूप हैं'-ऐसा विभीषणने जो कहा है, इसमें सन्देह नहीं। अतः हे प्रभो! आज्ञा देकर मुझे सम्मान प्रदान करें। (२६) तब रामने मंत्रियोंके साथ विचारविनिमय किया। उस समय मतिसागरने कहा कि मेरा कहना आप सुनें। (३०) हे प्रभो! शायद कपटसे रावणने विभीषणको भेजा है, अथवा कलुषित जल भी थोड़ी देरमें निर्मलता धारण करता है । (३१) इस पर शास्त्र एवं आगमोंके जानकार मतिसमुद्र मंत्रीने कहाकि लोग कहते हैं कि उन दोनोंके बीच विरोध हुआ है। (३२) हे प्रभो! हमने दूसरा यह भी सुना है कि विभीषण धर्मबुद्धिवाला नीतिमें कुशल है। ऐसे गुणोंवाला आप पर असद्भाव कैसे रख सकता है ? (३३) अथवा इस जगतमें सहोदर भाइयोंके बीच लोभवश क्या विरोध नहीं होता? इस विषयमें जो एक आख्यान है उसे ध्यानपूर्वक सुनें। (३४)
नैमिषारण्यमें गिरिभूति एवं गोभूति नामक दो युवा रहते थे। वहीं सूर्यदेव राजा था। उसकी रानी मति थी। (३५) उस मति रानीने उन दो ब्राह्मणोंको पुण्य पार्जनके लिए सुविशुद्ध और बहुत-सा सोना छिपा करके दानमें
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