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________________ ५३.७] ५३. हणुवलवानिग्गमणपव्वं सुण सुन्दरि । संखेवं, सीया रामस्स अवहिया रणे । संपेसिओ य सिग्घ, निययपुरं रक्खसिन्दाणं ॥ २६ ॥ सुग्गीवस्स किसोयरि !, पउमेण कए तओ य उवयारे । पडिउवयारनिमित्ते, एत्तो वच्चामि लड़ा है ॥ २७ ॥ कहिऊण यातं सबं, तीऍ समं पत्थिओ पवणपुत्तो । चण्डाणिलसरिसज़वो, तिकूडसिहरामहो सिग्धं ॥ २८ ॥ एवं इमं तु पेच्छह कम्मविचित्तयाए, सयलजसं उवेइ पियसंगमभत्ताए । लङ्कासुन्दरी' हणुवस्स विरोहाए, ववहरियं सिणेहविमलरइविचित्ताए ॥ २९ ॥ ॥ इय पउमचरिए हणुवकन्नालाभलङ्काविहाणं नाम बावन्नं पव्वं समत्तं ।। ५३. हणुवलङ्कानिग्गमणपव्वं एत्तो मगहाहिवई !, हणुओ लङ्कापुरि समणुपत्तो । पविसइ बिभीसणहरं, दारत्थं चेव एगागी ॥ १ ॥ दिवो बिभीसणेणं, हणुओ संभासिओ निविट्टो य । काऊण समुल्लावं, भणइ तओ कारणं निययं ॥ २ ॥ मह वयणेण बिभीसण, लकापरमेसरं भणसु एवं । नह परमहिलासङ्गो, पविरुद्धो उभयलोगम्मि ॥ ३ ॥ मज्जायाण नरिन्दो, मूलं सरियाण पबओ हवइ । तम्मि अणायारन्थे, अहियं तु पवत्तए लोगो ॥ ४ ॥ ससि सङ्घ-कुन्दधवलो, तुज्झ जसो भमइ तिहुयणे सयले । मा होउ कज्जलनिभो, एत्तो परनारिसङ्गेणं ॥ ५ ॥ सुय-दार-सयणसहिओ, भुञ्जसु रजं सुरिन्दसमविभवो । एव भणिऊण दहमुह !, सीया रामस्स अप्पेहि ॥ ६ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, बिभीसणो भणइ सो मए पढमं । वुत्तो नेच्छइ तत्तो, पभूह न य देइ उल्लावं ॥ ७ ॥ हे सुन्दरी ! संक्षेपमें सुन । रामकी सीता जंगलमेंसे अपहृत हुई है। इसपर राक्षसेन्द्र रावणकी अपनी नगरीमें मैं जल्दी ही भेजा गया हूँ। हे कृशोदरी! सुग्रीवके ऊपर राम द्वारा किये गये उपकारका प्रत्युपकार करनेके लिए मैं अब लंका जा रहा हूँ। (२५-२७) वह सारा वृत्तान्त कहकर प्रचण्ड पवनके समान शीघ्र गतिवाला हनुमान उसके साथ त्रिकूट शिखरकी ओर शीघ्र ही चल पड़ा। (२८) इस तरह कर्मकी यह विचित्रता तो देखो कि हनुमानका विरोध करनेवाली लंकासुंदरीने प्रिय हनुमानके संगमसे उत्पन्न सम्पूर्ण यश प्राप्त किया और विमल स्नेह तथा विचित्र रतिभावके साथ व्यवहार किया। (२६) ॥ पद्मचरितमें हनुमान का कन्या लाभ और लंका विधान नामक बावनवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ ५३. हनुमानका लंकागमन हे मगघनरेश ! इस तरह हनुमान लंकापुरीमें पहुँच गया और दूसरोंको द्वार पर ठहराकर वह अकेला विभीषणके घरमें प्रविष्ट हुआ (१) विभीषणने हनुमानको देखकर उसका सत्कार किया। बैठने पर बातचीत करके अपना आनेका कारण उसने कहा । (२) हे विभीषण ! मेरे वचनसे तुम रावणसे ऐसा कहो कि परनारीका संग उभयलोकमें विरुद्ध है। (३) जिस तरह नदियोंका मूल पर्वत होता है उसी तरह मर्यादाओंका मूल राजा होता है। जब वह अनाचारी होता है तब लोकमें अधिक अनाचार फैलता है। (४) चन्द्रमा, शंख एवं कुन्द पुष्पके समान तुम्हारा धवल यश समग्र त्रिलोकमें फैला हुआ है। अब परनारीके संसर्गसे काजलके जैसा वह न हो। (५) सुरेन्द्रके समान वैभववाले तुम पुत्र, पत्नी एवं स्वजनोंके साथ राज्यका उपभोग करो। ऐसा कहकर रावणसे कहो कि सीता रामको सौंप दो। (६) हनुमानका ऐसा कहना सुनकर विभीषणने कहा कि मैंने उसे पहले भी कहा था, किन्तु वह देना नहीं चाहता। तबसे लेकर वह बात भी नहीं करता। (७) हे हनुमान ! फिर भी तुम्हारे कहनेसे जा करके में रावणसे कहता हूँ, परन्तु १. निभो, दहमुहो। रामस्स-प्रत्य० । २. सीयं--प्रत्य. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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