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________________ ५२.८] ३४५ ५२. हणुवकण्णालाभलङ्कागमणपव्वं परिमुणियकज्जनिहसो, गन्धबो आगओ तमुद्देसं । देवागमणसरिच्छं, कुणइ तओ सो महाणन्दं ॥ २४ ॥ घेत्तृण य कनाओ, गन्धबो राघवं समल्लीणो । साहेइ कयषणामो, नियागमणकारणं सबं ॥ २५ ॥ एयासु य अन्नासु य, सेविज्जन्तो य वरविभूईसु । पउमो सीयाएँ विणा, मन्नइ सुन्न व तेल्लोकं ॥ २६ ॥ अहो, जणा ! सुकयफलेण सुन्दरा, रई सया हवइ विओगवज्जिया। तहा समाजयह जिणिन्दसासणे, सया सुहं विमलयरं निसेवह ॥ २७ ॥ ॥ इय पउमचरिए राघवगन्धव्वकन्नालाहविहाणं नाम एगपन्नासइमं पव्वं समतं॥ ५२. हणुवकण्णालाभलङ्काविहाणपव्वं अह 'सो पवणाणन्दो, तिकूडसमुहो नहेण वच्चन्तो । पायारेण निरुद्धो, धणुसंठाणेण तुङ्गेणं ॥ १ ॥ भणइड केण निरुद्धो, गइपसरों मह इमस्स सेन्नस्स ? । एयं मुणेह तुब्भे, जेण लहुं चेव नासेमि ॥ २ ॥ पवणतणयस्स मन्ती, साहेइ महामइ ति नामेणं । मायाएँ रक्खसेहिं, कओ इमो तुङ्गपायारो ॥ ३ ॥ अह तस्स देइ दिट्टी, पेच्छइ बहुकूडनन्तनियरोहं । दाढाविडम्बिओट्ट, विउलं आसालियावयणं ॥ ४ ॥ भीमाहिफडावियर्ड, विमुक्कसुंकारविससमुज्जलियं । पलयघणसरिसभूयं, समन्तओ घोरपायारं ॥५॥ सो वज्जकवयदेहो, हणुओ हन्तूण जन्तपायारं । आसालियाएँ वयणे, पइसरइ तओ गयाहत्थो ॥ ६ ॥ अह तीऍ फालिऊणं, कुच्छी नक्खेसु निम्गओ सिग्धं । सालं पुणो पुणो च्चिय, गयापहारेसु चुण्णेइ ॥ ७ ॥ तं घोरमहासई, सुणिऊणाऽऽसालियाएँ विज्जाए । सयमेव सालरक्खो, वजमुहो उढिओ रुट्ठो ॥ ८ ॥ कार्यका महत्त्व जानकर राजा गन्धर्व उस प्रदेशमें आया। उसने देवके आगमनके समान बड़ा भारी उत्सव मनाया। (२४) कन्याओंको लेकर गन्धर्व रामके पास गया और प्रणाम करके अपने आगमनका सारा कारण कह सुनाया । (२५) इन तथा दूसरी उत्तम विभूतियोंसे सेवित होने पर भी राम सीताके बिना त्रिलोकको शून्य-सा मानते थे। (२६) अहो! सुकृतके फलसे लोग सुन्दर प्रीतिवाले तथा सर्वदा वियोगरहित होते हैं। अतः जिनेन्द्रके शासनमें (धर्मकार्यमें) प्रयत्न करो तथा सदा अत्यन्त विमल सुखका उपभोग करो। (२७) ॥ पद्मचरितमें राघवको गन्धर्वकन्याओंका लाभ नामक इक्यावनवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ ५२. हनुमान और लङ्कासुन्दरी चित्रकूटकी ओर आकाशसे जाता हुआ हनुमान धनुषके आकारवाले ऊँचे प्राकारसे रोका गया। (१) तब उसने कहा कि मेरी इस सेनाका आगे बढ़ना किसने रोका है ? तुम यह सूचित करो जिससे मैं शीघ्र ही उसका नाश करूँ। (२) तब महामति नामके हनुमानके मंत्रीने कहा कि राक्षसोंने मायासे यह विशाल प्राकार बनाया है। (३) तब उसने उसपर दृष्टि डाली। बहुत-से कूटयंत्रोंके समूहसे व्याप्त, दाँतसे होठोंका तिरस्कार करनेवाला आशालिका विद्यासे युक्त विशाल मुखवाले, सर्पकी भयंकर फेनके कारण विकट, फुत्कारमें छोड़े गए विषसे समुज्ज्वलित तथा प्रलयकालीन बादलके जैसी भुजाओंवालेऐसे भयंकर प्राकारको उसने चारो तरफ देखा । (४-५) वनकवचकी देहवाले उस हनुमानने प्राकारगत यंत्रोंको मारकर और हाथमें गदा लेकर सर्पिणीके मुखमें प्रवेश किया । (६) नखोंसे उसकी कुक्षीको फाड़कर वह शीघ्र ही बाहर निकला और गदाके पुनः पुनः प्रहारसे किलेकी दीवारको उसने तोड़-फोड़ डाला। (७) आशालिका विद्याकी उस भयंकर महाध्वनिको सुनकर किलेकी रक्षा करनेवाला वनमुख स्वयं उठ खड़ा हुआ। (८) उसे सम्मुख देख उत्तम आयुधोंसे युक्त हनुमानके सुभट शत्रु १. पलयघणस्स व सरिसं समन्तओ-प्रत्य० । ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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