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________________ ५१.७] ५१. राघवगन्धव्वकन्नालाभपव्र्व एव भणिऊण तो सो, उप्पइओ नहयले पवणपुत्तो । लङ्काहिमुहो वच्चइ, इन्दो अमरावई चेव ॥ १८॥ गन्तुं महिन्दकेऊ, सुएण समयं पसन्नकित्तीणं । पूएइ रामदेवं, बहुभडपरिवारिओ पयओ ॥ १९ ॥ मायावित्तेहि समं, जाओ च्चिय अञ्जणाएँ संजोगो । पुडुपडहतूरपउरो, तत्थेव कओ महाणन्दो॥ २०॥ दट्टण आगयं ते, तत्थ महिन्दं विराहियाईया । सुहडा परितुट्ठमणा, पुणो पसंसन्ति पउमा ॥ २१ ॥ धम्मेण पुवस्सुकएण उत्तमा, सोक्खालया सबजणस्स बल्लहा। पावन्ति तुझं विमलं जसं नरा, तम्हा सया होह सुसंजमुजया ॥ २२ ॥ ॥ इय पउमचरिए महिन्ददुहियासमागमविहाणं नाम पन्नासइमं पव्वं समत्तं ॥ ५१. राघवगंधवकन्नालाभपव्वं अह तस्स नहयलेणं, बच्चन्तस्सऽन्तरे तओ जाओ। वररयणपज्जलन्तो, दीवो च्चिय दहिमुहो नाम ॥१॥ अह तम्मि पवरदीवे, अस्थि पुरं दहिमुहं ति नामेणं । भवणसहस्साइण्णं, काणण-वणमण्डिउद्देसं ॥२॥ तस्स पुरस्साऽऽसन्ने, नाणाविहरुक्खसंकडुद्देसे । हत्थावलम्बियभुयं, दिट्ट हणुवेण मुणिजुयल ॥ ३ ॥ कोसस्स चउन्भागे, मुणिवरवसभाण तिणि कन्नाओ । तप्पन्ति तवं घोरं, विज्जाए साहणट्ठम्मि ॥४॥ अह तं मुणिवरजुयलं, जोगत्थं वणदवग्गिडज्झन्तं । कन्नाहि समं दटु वच्छल्लं कुणइ हणुवन्तो ॥ ५॥ आयदिऊण एत्तो. सायरसलिलं घणोब विज्जाए। वरिसइ मुणीण उवरिं, मुसलपमाणासु धारासु ॥ ६॥ सो हुयवहो असेसो, अवहरिओ तेण सलिलपूरेणं । मुञ्चन्ति कुसुमवासं, देवा उवरि मुणिवराणं ॥ ७ ॥ ऊँचे उड़ा और अमरावतीकी ओर जानेवाले इन्द्रकी भाँति लङ्काकी ओर अभिमुख हुआ। (१८) बहुतसे सुभटोंसे घिरे हुए महेन्द्रकेतुने पुत्र प्रसन्नकीर्तिके साथ जाकर रामकी भक्तिपूर्वक पूजा की। (१६) माता-पिताके साथ अंजनाका समागम हुआ। दन्दभि और वाद्योंसे युक्त बड़ा भारी उत्सव वहींपर किया गया। (२०) महेन्द्रको वहाँ आया देख विराधित आदि वे सुभट मनमें आनन्दित हो पुनः रामकी प्रशंसा करने लगे। (२१) धर्म एवं पूर्वकृत पुण्यके कारण मनुष्य उत्तम, सुखके आलयरूप अर्थात् अत्यन्त सुखी और सब लोगोंके प्रिय होते हैं तथा विशाल और विमल यश पाते हैं। अतः तुम सदा सुसंयममें उद्यत रहो । (२२) ॥ पद्मचरितमें महेन्द्र-दुहिताके समागमका आख्यान नामक पचासवाँ पर्व समाप्त हुआ। ५१. गन्धर्वकन्याओंका लाभ आकाशमार्गसे जब वह हनुमान जा रहा था तब बीचमें उत्तम रत्नोंसे देदीप्यमान दधिमुख नामका एक द्वीप आया। (१) उस सुन्दर द्वीपमें हजारों भवनोंसे व्याप्त और वन-उपवनोंसे मण्डित प्रदेशवाला दधिमुख नामका एक नगर था। (२) उस नगरके समीप आये हुए नानाविध वृक्षोंसे संकीर्ण प्रदेशमें नीचे हाथ लटकाये हुए दो मुनियोंको हनुमानने देखा । (३) उन मुनिवरोंसे चौथाई कोस पर तीन कन्याएँ विद्याकी साधनाके लिए घोर तप कर रही थी। (४) कन्याओंके साथ योगस्थ उन मुनियोंको जंगलकी दावाग्निसे जलते देख हनुमानको दया आई। (५) उसने विद्याके प्रभावसे बादलकी भाँति सागरका जल खींचकर मुसल जैसी धाराओंसे मुनियोंके ऊपर वर्षा की। ६) पानीकी उस बाढ़से सारी भाग शान्त हो गई। देवोंने मुनिवरोंके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा की। (७) तब उपसर्गसे सिद्ध विद्यावाली वे कन्याएँ मेरुकी १. मुसलसमाणासु-प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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