________________
३३४
पउमचरियं
[४८.४६ नयरे सुरसंगीए. कुलोचिए परिवसामि तत्थाहं । नामेणं रयणनडी, तुज्झ य सरणं समल्लीणो ॥ ४६॥ रामो समुस्सुयमणो, परिपुच्छइ खेयरा महं सिग्घं । साहेह फुडं एत्तो, केदूरे सा पुरी लक्का ॥ ४७ ॥ ते एव भणियमेत्ता, अहोमुहा लज्जिया गया मोहं । कज्जे अणायरमणा, निरिक्खिया रामदेवेणं ।। ४८॥ कत्तो अम्ह महाजस!, सत्ती लाहिवं जिणेऊणं । सोयबएण निसुणसु, को दोसो नइह अणुबन्धो? ॥ ४९॥ अत्थि इह लवणजले, रक्खसदीवो ति नाम विक्खाओ । सत्तेव जोयणसया, वित्थिण्णो तिगुणपरिवेढो ॥ ५० ॥ तस्स य मज्झम्मि ठिओ, मेरु ब तिकूडपबओ रम्मो । नव जोयणाणि तुङ्गो, पन्नासं चेव वित्थिण्णो ॥ ५१ ॥ तस्सुवरिं सा नयरी, लङ्का नामेण रयणपायारा । तीसं च नोयणाई. वित्थिण्णा सा समन्तेणं ।। ५२ ।। लङ्कापुरीऍ सामिय !, पासेसु अहिटिया महादीवा । अन्ने वि सग्गसरिसा, वसन्ति विजाहरजणेणं ॥ ५३ ॥ दीवा सञ्झायारो, तह य सुवेलो य कञ्चणो चेव । पल्हाओ य अनोहो, हंसरवो उवहिनिग्धोसो ॥ ५४ ॥ अन्ने वि अद्धसग्गादओ य दीवा अणेयपरियन्ता । बल-पुत्त-दारसहिओ, कीलइ लङ्काहिवो जेसु ॥ ५५ ॥ नामेण भाणुकण्णो, जस्स कणिट्ठो महाबलो सूरो । बिइओ बिहीसणो से, दढसत्ती बुद्धिसंपन्नो ॥ ५६ ॥ समरे अणिज्जियभडो, पुत्तो से इन्दई महासत्तो। घणवाहणो ति नाम. बीओ सो तेण पडितुल्लो ॥ ५७ ॥ सो एवमाइएहिं, भडेहि तिसमुद्दमेइणीनाहो । पहु ! अम्हेहि न जिप्पइ, राघव ! छड्डेहि एस कहा ॥ ५८॥ अह भणइ लच्छिनिलओ, नइ दढसत्तो दसाणणो भणिओ।तो किं व इह समक्खं, परमहिलातकरो जाओ। ॥ ५९ ॥ पउमो वि भणइ निसुणह, किं व इह जंपिएहि बहुएहिं ? । जइ कुणह मज्झ पीई, तो दरिसह जणयनिवर्तणया॥६०॥ तो भणइ नम्बवन्तो, इमाउ विज्जाहराण धूयाओ । परिणेऊण महानस !, विसयसुहं चेव माणेहि ॥ ६१ ॥
उसने कहा-कुल परम्परासे प्राप्त सुरसंगीत नामक नगरमें मैं रहता हूँ। नामसे रत्नजटी मैं आपकी शरणमें आया हूँ। (४६)
उत्सुक मनवाले रामने खेचरोंसे पूछा कि मुझे जल्दी बताओ कि वह लंका नगरी कितनी दूर है ? (४७) ऐसा कहने पर सिर झुकाये हुए, ललित, मोहप्राप्त, कार्यमें आदर बुद्धि न रखनेवाले-ऐसे उन वानरोंको रामने देखा । (४८) हे महाशय ! लंकाधिप रावणको जीवनेकी हमारी क्या ताकत ? यदि आपका भामह है तो इसमें क्या दोष है पर जो सुनने योग्य है उसे श्राप सुनें । (४९) इस लवणसागरमें विख्यात राक्षसद्वीप आया है। सात सौ योजन विस्तीर्ण और उससे तिगुनी अर्थात् इक्कीस सौ योजनकी परिखासे घिरा हुआ है। (५०) उसके बीच मेरुके जैसा रम्य त्रिकूट पर्वत स्थित है। वह नौ योजन ऊँचा और पचास योजन विस्तीर्ण है । (५१) इसके ऊपर रत्नके परकोटेवाली और चारों ओरसे तीस योजन विस्तीर्ण लंका नामकी वह नगरी आई है। (५२) हे स्वामी ! लंकापुरीके समीप स्वर्गके सदृश दूसरे भी महाद्वीप
आये हैं, जिनमें विद्याधर बसते हैं। (५३) सन्ध्याकार द्वीप तथा सुवेल, कांचन, प्रह्लाद, अयोध, हंसरव, उदधिनिर्घोष तथा दूसरे भी उसे घेरे हुए अनेक अर्धसर्ग आदि द्वीप हैं जिनमें सेना, पुत्र एवं पत्नियों के साथ लंकाधिप रावण क्रीड़ा करता है। (५४-५) जिसका महाबली और शूरवीर भानुकर्ण छोटा भाई है उसीका दृढ़ शक्तिवाला और बुद्धि सम्पन्न विभीषण भी एक दूसरा भाई है। (५६) युद्धमें अजेय सुभट तथा महासमर्थ इन्द्रजित उसका पुत्र है। उसीके जैसा धनवाहन नामक दूसरा पुत्र है । (५७) हे प्रभो! ऐसे सुभटोंसे युक्त तथा जिसके तीन तरफ समुद्र है ऐसी पृथ्वीका स्वामी रावण हमसे नहीं जीता जा सकता। हे राघव ! यह कथा आप छोड़े। (५८) तब लक्ष्मणने कहा कि यदि रावण अत्यन्त शक्तिशाली कहा जाता है तो वह क्यों दूसरेकी स्त्रीको साक्षात् चुरानेवाला हुआ? (५९) रामने भी कहा कि सुनो। यहाँ बहुत बोलनेसे क्या फायदा? यदि तुम मुम पर प्रीति रखते हो तो जनकराजाकी पुत्री सीताको दिखलायो । (६०) इस पर जाम्बवानने कहा कि हे महायश! इन विद्याधरोंकी कन्याओंसे विवाह करके आप विषय-सुख मानें । (६१) अथवा
१. पीई-प्रत्य० । २. तणयं-प्रत्यः ।
तथा है, जिनमें विद्याधर की बहु नगरी आई है। विस्तीर्ण है । (५१) इसके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org