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.... परमचारियं. मह जुवईण किसोयरि !, होहि तुमं उत्तमा महादेवी । माणेहि विसयसोक्खं, जहिच्छियं मा चिरावेहि ॥ १८ ॥ तो भणइ जणयतणया, समय रामेण रण्णवासो य । अहियं मे कुणइ घिई, सुरवइलोगं विसेसेइ ।। ४९ ॥ भूसणरहिया वि सई, तीए सीलं तु मण्डणं होइ । सीलविहूणाएँ पुणो, वरं खु मरणं महिलियाए ॥ ५० ॥ न एव निरागरिओ, माया काउं समुज्जओ सहसा । अथमिओ दिवसयरो, ताव य जायं तमं घोरं ॥ ५१ ।। हत्थीसु केसरीसु य, वग्धेसु य भेसिया जणयघूया । न य पडिवन्ना सरणं, दसाणणं नेव सा खुहिया ॥ ५२ ॥ रक्खस-वेयालेसु य, अहिर्य मेसाविया वि नागेसु । न य पडिवन्ना सरणं, दसाणणं नेव सा खुहिया ॥ ५३ ।। एवं दसाणणेणं, मेसिजन्तीऍ ववगया रयणी । नासेन्तो बहलतमं, ताव चिय उम्गओ सूरो ॥ ५४॥ तत्थेव वरुज्जाणे, ठियस्स सुहडा विभीसणाईया । सिग्धं च समणुपत्ता, पणमन्ति कमेण दहवयणं ॥ ५५ ॥ ताव य तहिं रुयन्ती, दट्टण बिहीसणो जणयघूयं । पुच्छइ कहेहि भद्दे !, दुहिया भज्जा व कस्स तुम ? ।। ५६ ॥ सा भणइ वच्छ ! निसुणसु, दुहिया जणयस्स नरवरिन्दस्स । भामण्डलस्स बहिणी, राघवघरिणी अहं सीया ।।५७॥ जाव य मज्झ पिययमो, गवेसणट्टे गओ कणिट्ठस्स । ताव अहं अवहरिया, इमेण पावेण रण्णाओ॥ ५८॥ . नाव न वच्चइ मरणं, मह विरहे राघवो तहिं रण्णे । ताव इमो दहवयणो, नेऊण मए समप्पेउ ॥ ५९ ।। सणिऊण तीऍ वयणं, बिहीसणो भायरं भणइ एवं । दित्ताणलसमसरिसी, कि परनारी समाणीया ? ॥ ६० ॥ अन्नं पि सुणसु सामिय !, तुज्झ जसो भमइ तिहुयणे सयले । परनारिपसङ्गेणं,मा अयसकलङ्किओ होहि ।। ६१ ॥ उत्तमपुरिसाण पहू!, न य जुत्तं एरिसं हवइ कम । बहुजणदुगुञ्छणीयं, दोग्गइगमणं च परलोए ॥ ६२ ॥ पडिभणइ खेयरिन्दो, किं परदचं महं वसुमईए । दुषयचउप्पयवत्थु, जस्स न सामी अहं जाओ ? ॥ ६३ ॥
विषयसुखका उपभोग करो। देर मत करो। (४८) इस पर सीताने कहा कि रामके साथ अरण्यवास भी मुझे अधिक शान्ति देता है। वह इन्द्र के देवलोकसे भी विशिष्ट है। (४९) भूषगरहित होने पर भी सतीके लिए शील ही मण्डन रूप होता है। शीलरहित स्त्रीके लिए तो मरण ही अच्छा है । (५०) इस प्रकार तिरस्कृत होने पर वह माया करनेके लिए सहसा उद्यत हुआ। उस समय सूर्य अस्त हो गया और घोर अन्धकार छा गया । (५१) हाथी, सिंह और बाघोंसे सीता डराई गई, फिर भी न तो वह क्षुब्ध हुई और न रावणकी शरणमें गई। (५२) राक्षस, बेताल तथा साँसे वह अधिक डराई गई, किन्तु न तो वह क्षुब्ध हुई और न रावणकी शरणमें गई । (५३) इस प्रकार रावण द्वारा डराई जाती सीताकी रात व्यतीत हुई, गाढ़ अन्धकार नष्ट हुआ और सूर्योदय हुआ। (५४)
उसी उद्यानमें ठहरे हुए रावणके पास शीघ्र ही विभीषण आदि सुभट आये। उन्होंने अनुक्रमसे प्रणाम किया। (५५) उस समय वहाँ सौताको रोते देख विभीषणने पूछा कि, हे भद्रे ! तुम किसकी पुत्री अथवा किसकी पत्नी हो ? (५६) उसने कहा कि. हे वत्स ! तुम सुनो। मैं राजा जनककी पुत्री, भामण्डलकी बहन और रामकी पत्नी सीता हूँ। (५७) जब मेरे पति छोटे भाईकी खोजमें गये थे तब इस पापीने मेरा जंगलमेंसे अपहरण किया है। (५८) उस अरण्यमें मेरे विरहसे राम जबतक मृत्यु प्राप्त नहा करते तबतक इस रावणके पाससे ले जाकर तुम मुझे रामको सौंप दो। (५९) उसका कथन सुनकर विभीषणने भाईसे कहा कि प्रज्वलित अग्निके समान परनारीको क्यों लाये हो ? (६०) हे स्वामी! दूसरा भी सुनो। भापका यश सारे त्रिभुवनमें भ्रमण करता है, अतः परनारीके प्रसंगसे प्राप्त होनेवाले अपयशसे तुम कलंकित मत बनो । (६१) हे प्रभो! उत्तम पुरुषोंके लिए ऐसा कार्य, जो बहुजन द्वारा जुगप्सित और परलोकमें दुर्गति देनेवाला हो, उपयुक्त नहीं है। (६२) इस पर खेचरेन्द्र रावणने कहा कि इस पृथ्वीपर मेरे लिए परद्रव्य जैसा क्या है? द्विपद (मनुष्य) और 'चतुष्पद (पशु) में ऐसी कौनसी वस्तु है जिसका मैं स्वामी नहीं हूँ११६३)
१. मायं--प्रत्य.। . तमन्धार--प्रत्य० । ३. इहाऽऽणीया-प्रत्य.।
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