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४३. २७ ]
४३. संयुकबणपव्वं
तं नोयणद्धभागं, गन्तूण अहो य दण्डगगिरिस्स । रेहइ गुहामुहत्थं दिवं मणितोरणं विउलं ॥ तं पविसिऊण अन्तो, अत्थि अलङ्कारपुरवरं रम्मं । परचक्कदुप्पवेसं, सव्वुवगरणेसु संजुत्तं ॥ एवं चिय परिकहिए, अणुणाओ मेहवाहणो गन्तुं । लङ्कापुरीऍ रज्जं, करेइ इन्दो इव जहिच्छं ॥ न य रक्खसा न देवा, रक्खसदीव तु जेण रक्खन्ति । विज्जाहरा जणेणं, वुच्चन्ति उ रक्खसा तेणं ॥ अह मेहवाहणाई, रक्खसवंसे नरिन्दवसहेसु । कालेण ववगएसुं, बहवेसु महाणुभावेसु ॥ तत्थ य रक्खसवंसे, उप्पण्णो रावणो तिखण्डवई । बहिणी से चन्दणहा, तीए खरदूसणो कन्तो ॥ चोद्दसहि सहस्सेहिं, नोहाणं सत्ति-कन्तिजुत्ताणं । भुञ्जइ पायालपुरं दिवं धरणीऍ विवरत्थं ॥ खरदूसणस्स पुत्ता, दोण्णि जणा सुरकुमारसमरूवा । संबुक्क-सुन्दनामा, जेट्ठ-कणिट्टा महासत्ता ॥ वारिज्जन्तो वि बहु, गुरूहि मरणावलोइओ सन्तो । पविसद् दण्डारण्णं, सम्बुको सुज्जहासत्थे ॥ जो दिट्टिगोयरपहे, ठाही असमत्तनियमजोगस्स । सो मे होही वज्झो, एत्थारण्णे न संदेहो ॥ लवणनलस्सुत्तरओ, कोञ्चरवाए नईऍ आसन्नं । सम्बुको कयकरणो, पविसह बंसत्थलं गुविलं ॥ बारस बरिसाणि तओ, गयाणि चत्तारि चेव दिवसाणि । अच्छन्ति तिण्णि दिवसा, विज्जाऍ, असिद्धकालस्स ॥ ताव य परिहिण्डन्तो, संपत्तो लक्खणो तमुद्देसं । पेच्छइ य सुज्जहासं, खग्गं बहुकिरणपज्जलियं ॥ घणपायवसंछन्नं, बहुपत्थरवेढियं कयाभोगं । मज्झम्मि धरणिवछं, समच्चियं कणयपरमेहिं ॥ तं गन्धसमालद्धं, वरकुङ्कुमबहल दिन्नचच्चिकं । गेण्हइ तहट्टियं सो, खग्गं लच्छीहरो सिग्धं ॥ दाहिणकरग्गगहियं, विष्णासन्तेण वाहियं खग्गं । घणनिचयबद्धमूलं, छिन्नं वंसत्थलं तेणं ॥ तावच्चिय तत्थ सिरं, पेच्छइ पडियं सकुण्डलाडोवं । देहं च रुहिरकदम - समोल्लियं विदुदुमावयवं ॥
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दण्डकगिरिके नीचे आधा योजन जाने पर गुफाके मुखमें एक दिव्य और विशाल मणिमय तोरण शोभित हो रहा है । (११) उसमें प्रवेश करने पर अन्तमें सुन्दर, दूसरे राजा के लिए दुष्प्रवेश तथा सभी तरह के उपकरणोंसे संयुक्त अलंकारपुर नामका नगर आता है । ( १२ ) इस प्रकार उसे कहा । अनुज्ञाप्राप्त मेघवाहन लंकापुरी में जाकर इन्द्रकी भाँति इच्छानुसार राज्य करने लगा । (१३) वे न तो राक्षस हैं और न देव ही। वे विद्याधर राक्षस द्वीपकी रक्षा करते थे, अतः लोगों में वे राक्षस कहे गये । (१४) राक्षसवंश में मेघवाहन आदि बहुत-से महानुभाव राजा स्वर्गवासी हुए ।. (१५) उस राक्षसवंश में तीन खण्डों का अधिपति रावण उत्पन्न हुआ । उसकी बहन चन्द्रनखा और उसका पति खरदूषण था । (१६) शक्ति एवं कान्तिसे युक्त चौदह हजार योद्धाओं के साथ पृथ्वीके विवरमें रहे हुए पातालपुर नामक दिव्य नगरका वह उपभोग करता था । ( १७ ) खरदूषण के देवकुमारोंके समान रूपवाले तथा अतिसमर्थ शंबूक एवं सुन्द नाम के ज्येष्ठ व कनिष्ठ दो पुत्र थे । (१८) गुरुजनों द्वारा बहुत मना करने पर भी मानों मृत्यु द्वारा देखा गया हो ऐसे शम्बूकने सूर्यहास तलवार के साथ दण्डकारण्यमें प्रवेश किया । (१९) इस जंगलमें सम्यक्त्व, नियम एवं योगसे रहित जो मेरे दृष्टिपथ में आयगा वह निःसन्देह मेरे द्वारा मारा जायगा । (२०) लवणसमुद्रके उत्तरमें और क्रौंचरवा नदीके समीप अभ्यास करने वाले शम्बूकने बाँसके गहरे जंगलमें प्रवेश किया । (२१) वहाँ बारह साल और चार दिन बीते । विद्याके अप्राप्ति काल के तीन दिन बाकी थे । (२२) उस समय घूमता घामता लक्ष्मण उस प्रदेश में जा पहुँचा । उसने किरणों से अत्यन्त प्रज्वलित सूर्यहास तलवार देखी । ( २३ ) वनके बीच सघन वृक्षोंसे आच्छन्न, बहुत-से पत्थरों द्वारा वेष्टित, सामग्री से संपन्न समतल धरातल पर स्वर्ण कमलोंसे अर्चित, गन्धसे लिप्त, उत्तम कुंकुमका कर्दम लगाने से शोभितइस तरह से अवस्थित तलवार लक्ष्मणने जल्दी ही उठा ली । (२४-५) दाहिने हाथ में धारण करके उसने जिज्ञासासे तलवार चलाई और सघन और बद्धमूल बाँस के समूहको काट डाला । (२६) उसी समय उसने वहाँ कुण्डलसे अलंकृत एक मस्तक गिरा हुआ देखा। विद्रुमके समान अवयव वाली देह रुधिरके कीचड़से लिप्त हो गई थी । (२७) इसके पश्चात्
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