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४२. दण्डगारण्णनिवासविहाणं भणिया य साहवेणं, नणयसुया पक्खिणं इमं भद्दे ! । रक्खेजसु पययमणा, सम्मदिट्ठी इहारण्णे ॥ ७० ॥ दाऊण य उवएस, निययहाणं गया मुणिवरिन्दा । सीया वि पक्खिणं तं, संभमहियया परामुसइ ।। ७१ ॥ सुणिऊण दुन्दुभिरवं, ताव य लच्छीहरो गयारूढो । तत्थाऽऽगओ य पेच्छइ, पवयमेतं रयणरासिं ॥ ७२ ॥ अह लक्खणस्स एत्तो, कोउगगहियस्स रामदेवेणं । परिकहिओ वित्तन्तो, भिक्खादाणाइओ सबो ॥ ७३ ॥ धम्मस्स छ विउलं, माहप्पं इह भवेसु गहियस्स । जेणेरिसो वि गिद्धो, जाओ इन्दाउहसवण्णो || ७४ ॥ जेणन्ति सिरे, जडाउ मणि-रयण-कश्चणमईओ । तेणं चिय वाहरिओ. तेहि जडाई पहढेहिं ॥ ७५ ॥ रामस्स लक्खणस्स य, पुरओ य उवट्टिओ विणयजुत्तो । भुञ्जइ सुसाउकलियं, सीयाएँ पसाहियाहारं ॥ ७६ ॥ जिणवन्दणं तिसझं, सीयाएँ समं करेइ पययमणो । अच्छइ ताणऽल्लीणो, पक्खी अन्नन्नदिट्ठीओ ॥ ७७ ॥
रक्खिजमाणो जणयङ्गयाए, निच्चं सुणन्तो जिणगीययत्थं ।
पणच्चिओ धम्मगुणाणुरत्तो, जाओ जडागी विमलाणुभावो ॥ ७८ ॥ ॥ इय पउमचरिए जडागीपक्खि उवक्खाणं नाम एगचत्तालं पदं समत्तं ॥
४२. दण्डगारण्णनिवासविहाणं अह ते दसरहतणया, दिनेण सुपत्तदाणतेएणं । पत्ता य रयणवुट्टी, पुण्णं च समज्जियं विउलं ॥१॥ अन्नं च हेममइयं, मणि-रयणोचूलमण्डियाडोवं । सयणा-ऽऽसणसंजुत्तं, सललियधुवन्तधयमालं ॥२॥ चउतुरयसमाउत्त, पत्ता य रहं सुरेसु उवणीयं । वियरन्ति तत्थ रण्णे, अभिरममाणा जहिच्छाए ॥ ३ ॥
कत्थइ दियहं पक्खं, कत्थइ मासं मणोहरुद्देसे । अच्छन्ति ते कयत्था, कीलन्ता निययलीलाए ॥ ४ ॥ जनकसुता सीतासे कहा कि, हे भद्रे ! इस अरण्यमें सम्यग्दृष्टि इस पक्षीकी प्रयत्नपूर्वक तुम रक्षा करो। (७) उपदेश देकर मुनिवरेन्द्र अपने स्थान पर चले गये। हृदयमें आदर बुद्धिवाली सीता भी उस पक्षीको सहलाने लगी। (७१) उस समय दुन्दुभिकी ध्वनि सुनकर हाथी पर सवार हो लक्ष्मण वहाँ आया और पर्वत जैसी विशाल रत्नराशि देखी (७२) आश्चर्यचकित लक्ष्मणको रामने भिक्षादानसे लेकर सारा वृत्तान्त कह सुनाया। (७३) धारण किये हुए धर्मका इस भवमें ही विपुल माहात्म्य देखो, जिससे ऐसा गीध भी इन्द्रके आयुध वनके जैसा वर्णवाला हो गया है। (७४) चूंकि उसके सिर पर मणि, रत्न तथा कांचनमय जटाएँ शोभित हो रही थी, अतएव आनन्दमें आये हुए उन्होंने उसे 'जटायु' कहा । (७५) राम एवं लक्ष्मणके आगे बैठे हुए विनययुक्त उसने सीताके द्वारा पकाये गये और सुस्वादसे युक्त आहारका भक्षण किया। (७६) मनमें उद्यमशील वह पक्षी सीताके साथ तीनों सन्ध्याके समय जिनवन्दन करता था और अनन्यदृष्टि (सम्यग्दृष्टि) वह उन्हींके पास रहता था। (७७) सोता द्वारा रक्षित वह नित्य जिनेश्वरके आगे गाये जानेवाले गीत सुनता था और धर्मके गुणमें अनुरक्त हो नाचता था। इस प्रकार जटायु विमल भाववाला हुआ। (७८)
॥ पद्मचरितमें जटायु पक्षीका उपाख्यान नामक एकतालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥
४२. दण्डकारण्यमें निवास उन दशरथपुत्रोंने सुपात्रको दिये गये दानके प्रभावसे रत्न-वृष्टि प्राप्त की तथा विपुल पुण्य अर्जित किया । (१) इसके अतिरिक्त हेममय मणि एवं रत्नोंकी चूलिकासे मण्डित श्राडम्बरवाला, शयन एवं आसनसे युक्त, ध्वजाओंकी पंक्ति जिसपर लीलाके साथ फहरा रही है तथा चार घोड़े जिसमें जुते हुए हैं ऐसा देवों द्वारा लाया गया रथ भी उन्हें मिला। इच्छानुसार रमण करते हुए वे उस अरण्यमें विचरण करते थे। (२-३) अपनी मौजसे क्रीड़ा करते हुए कृतार्थ वे उस मनोहर प्रदेशमें कहीं दिन, कहीं पखवाड़ा तो कहीं एक महीना ठहरते थे। (४) सघन वन-वृक्षोंको तथा बहुतसे
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