________________
३९.४८ ]
३९. देसभूसण- कुलभूसणवक्खाणं
३३ ॥
३४ ॥
॥
afणिए य पाडिहेरे, हलहर - नारायणेहि साहूणं । कम्मस्स खयवसेणं, उप्पन्नं केवलन्नाणं ॥ तत्तो य चउनिकाया, समागया सुरगणा नरगणा य । थोऊण समणसोहे, नहाविहं चेव उवविद्वा ॥ काऊण केवलीणं, पृया नमिऊण सबभावेणं । सीयाऍ दो वि पासे, उवविट्ठा राम- सोमित्ती ॥ तो सुरगणाण मज्झे, पउमो पुच्छइ महामुणो एत्तो । अज्ज निसासुवसग्गो, केण कओ मे अपुण्णेणं ? ॥ अह साहिउं पवत्तो, केवलनाणी परव्भवसमूहं । अस्थि च्चिय विक्खाया, नयरी वि हु पउमिणी नामं ॥ तं भुञ्जइ वरनयरिं नराहिवो विजयपबओ नामं । सुरवहुसमाणरूवा, महिला वि य धारिणी तस्स ॥ तत्थेव वसइ दुओ, अमयसरो विविहसत्थमइकुसलो । उबओगा से घरिणी, तीए दो सुन्दरा पुत्ता उदिओ त्थ हवइ एको, बिइओ मुइओ त्ति नाम नामेणं । सो नरवईण दूओ, पवेसिओ यकज्जेणं ॥ वसुभूईण समाणं, मितेणं कवडपीइपमुहेणं । वच्चइ परविसयं सो, अणुद्रियहं देहसो खेणं विप्पो वि य वसुभूई, आसत्तो तस्स महिलियाऍ समं । दूयं हन्तूण तओ, रयणीसु छलेण विणियत्तो ॥ साहेइ य वसुभूई, जणस्स विणियत्तिओ अहं तेणं । दूयधरिणोऍ समयं, कुणइ य सो दुट्टुमन्तणयं ॥ उवओगा भणइ तओ, एए हन्तूण दो वि पुत्ते हं । भुञ्जामि तुमे समयं भोगं निक्कण्टयं सुइरं ॥ तं बम्भणीऍ सबं, रइए वसुभूइमहिलियाए उ । ईसालुणीऍ सिहं, उइयस्स य नं. जहावतं ॥ तो रोसबसगएणं, उदिएणं असिवरेण तिक्खेणं । सो मारिओ कुविप्पो, मेच्छो पल्लिम्मि उप्पन्नो ॥ अह अन्नया कयाई, चाउबण्णेण समणसङ्घणं । मइवद्धणो सुसाहू, समागओ पउमिणि नयरिं ॥ आसि तया विक्खाया, अणुद्धरा नाम सयलगणपाली । धम्मज्झाणोवगया, वच्छलप्रभावणुज्जुत्ता ॥
॥
४३ ॥
४४ ॥
४५ ॥
४६ ॥
४७ ॥
४८ ॥
३५ ॥
३६ ॥
३७ ॥
३८ ॥
३९ ॥
४० ॥
Jain Education International
४१ ॥
४२ ॥
राम एवं लक्ष्मणने साधुओं के प्रातिहार्य किये । कर्मके क्षयसे उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । ( ३३ ) तत्र चारों निकायों के देवगण तथा मानवगण आये और श्रमणोंमें सिंह जैसे उनकी स्तुति करके यथायोग्य स्थान पर वे बैठ गये । (३४) केवलियोंकी पूजा करके और सर्वभावसे वन्दन करके राम व लक्ष्मण दोनों ही सीताके पास बैठे । (३५) तत्र रामने पूछा कि देवताओंके fe शालीने आज रातके समय आप पर उपसर्ग किया था ? ( ३६ ) इसपर केवलज्ञानीने परभवोंके बारेमें
कहना शुरू किया
पद्मिनी नामको एक प्रसिद्ध नगरी है । (३७) उस सुन्दर नगरीका विजयपर्वत नामका राजा उपभोग करता था । देवकन्याके जैसे रूपवाली धारिणी उसकी पत्नी थी। (३८) वहीं पर विविध शास्त्रों में अत्यन्त कुशल अमृतसर नामका एक दूत रहता था। उसकी गृहिणीका नाम उपयोगा था। उसके दो सुन्दर पुत्र थे । (३९) उनमेंसे एकका नाम उदित और दूसरेका नाम मुदित था । वह दूत राजाके द्वारा दौत्यकार्यके लिए बाहर भेजा गया। (४०) कपटी प्रेम करनेवाले तथा प्रतिदिन शरीरसुखमें आसक्त वसुभूति नामके मित्रके साथ वह दूसरे देश में गया । (४१) वसुभूति ब्राह्मण उसकी स्त्री में आसक्त था, अतः रातमें छलसे दूतको मारकर वह वापस लौट आया । (४२) वसुभूतिने लोगोंसे कहा कि उसने मुझे लौटा दिया है । दूतपत्नी उपयोगाके साथ उसने दुष्ट मंत्रणा की । (४३) तब उपयोगाने कहा कि इन दो पुत्रोंको भी मार डालो, जिससे मैं निष्कण्टक हो चिरकाल पर्यन्त तुम्हारे साथ भोग भोग सकूँ । (४४) वसुभूतिकी ईर्ष्यालु ब्राह्मणपत्नीने जैसा हुआ था वैसा सब कुछ रातके समय उदित से कहा । (४५) तब रोषके वशीभूत उदितने तोक्ष्ण तलवारसे उस दुष्ट ब्राह्मणको मार डाला । मरकर वह म्लेच्छके रूपमें एक पल्लीमें उत्पन्न हुआ । (४६)
For Private & Personal Use Only
२९५
एक दिन चतुर्विध श्रमणसंघके साथ मतिवर्धन नामक साधु पद्मिनीनगरी में आये । (४७) उस समय सारे गणका पालन करनेवाली, धर्मध्यानमें लीन, साधर्मिवात्सल्य एवं धर्मप्रभावना में उद्युक्त अनुद्धरा प्रसिद्ध थी । (४८) श्रमणसंघके
१. पूयं प्रत्य० । २. निययकज्जेणं प्रत्य० ।
www.jainelibrary.org