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पउमचरियं
[३४.५परिचिन्तिऊंण को विह.दोसो संपत्थिओ य सोमित्ती। कोमलकरम्गगहिओ. भवणं चिय पेसिओ तेणं ॥५॥ एक्कासणे निविट्ठो, पुच्छइ सो लक्खणं कओ सि तुमं । एत्थाऽऽगओ महाजस !?, किं नामं ते परिकहेहि? ॥ ६ ॥ सो भणइ विप्पउत्तो, मह भाया चिट्ठए वरुजाणे । नाव न तस्स उदं तं, वच्चामि तओ कहिस्से हैं ॥ ७ ॥ तो भणइ नराहिवई, पत्थं चिय भोयणं बहुवियप्पं । उवसाहियं मणोजं, आणिज्जउ सो इहं चेव ॥ ८ ॥ वीसजिओ तुरन्तो, पडिहारो काणणे सुनिविर्से । दट्टण पउमनाहं, कुणइ पणामं ससीयस्स ॥९॥ भणइ य तो पडिहारो, सहोयरो देव ! तुज्झ वरभवणे । चिट्ठइ विसज्जिओ है, नयराहिवईण पासं ते ॥१०॥ सामिय! कुणसु पसायं, पविसरसु नराहिवस्स वरभवणं । वयणेण तस्स चलिओ, सीयाएँ समं पउमनाहो ॥ ११ ॥ अब्भुटिओ य एन्तो, लच्छीनिलएण जणसमग्गेणं । दिन्नासणोवविट्ठो, रामो सोयाएँ साहीणो ॥ १२ ॥ सबम्मि सुपडिउत्ते, काउं मज्जणय-भोयणाईयं । पउमो लक्खणसहिओ, पवेसिओ तेण वरभवणं ॥ १३ ॥ पाएसु पणमिऊणं, जंपइ ताएण पेसिओ दूओ । मह सुणसु देव! तुब्भे, परमत्थं सारसब्भावं ॥ १४ ॥ तो उज्झिऊण लज्जा, ओइंधइ कञ्चुयं सरीराओ । सुरजुवइ व मणहरा, नज्जइ सग्गाउ पन्भट्ठा ॥ १५ ॥ दिट्ठा वरकन्ना सा, जोबण-लायण्ण-कन्तिपडिपुण्णा । लच्छि व कमलरहिया, भवणसिरी चेव पच्चक्खा ॥ १६ ॥ तं भणइ पउमनाहो, भद्दे ! कि एरिसेण वेसेण । कीलसि वरतणुयङ्गी, कन्ने ! निययम्मि रजम्मि ? ॥ १७ ॥ लज्जोणउत्तिमङ्गी, भणइ य निसुणेहि देव! वित्तन्तं । नामेण वालिखिल्लो, इह पुरिसामी नरवरिन्दो ॥ १८ ॥ तस्स पुहइ ति महिला, सा गुरुभारा कयाइ संपन्ना । मेच्छाहिवेण जुज्झे, बद्धो सो नरवई तइया ॥ १९ ॥
है?-ऐसा विचार करके लक्ष्मण चल पड़ा। कोमल हाथों द्वारा गृहीत लक्ष्मणको वह महलमें ले गया । (५) एक ही आसनपर बैठे हुए लक्ष्मणसे पूछा कि, हे महायश ! तुम कहाँसे यहाँपर पधारे हो और तुम्हारा क्या नाम है, यह कहो । (६) उसने कहा कि मेरे भाई मुझसे वियुक्त होकर उत्तम उद्यानमें ठहरे हुए हैं। यावत् उनके पास पानी नहीं है, अतः मैं वह लेकर जाता हूँ। बाद में मैं कहूँगा। (७) तब राजाने कहा कि यहाँपर अनेक प्रकारका भोजन तैयार किया गया है। उन्हें यहींपर ले आओ। (८) प्रतिहार तुरन्त भेजा गया। उद्यानमें आरामसे बैठे हुए रामको देखकर सीतासहित उन्हें उसने प्रणाम किया। (९) बादमें प्रतिहारने कहा कि, हे देव! आपके भाई उत्तम भवनमें ठहरे हुए हैं। इस नगरके राजाने मुझे आपके पास भेजा है। (१०) हे स्वामी ! आप राजाके महल में प्रवेश करें। उसके ऐसा कहनेपर सीताके साथ राम चल पड़े। (११) आते हुए उनका लक्ष्मणके साथ सब लोगोंने खड़े होकर सत्कार किया। सीताके साथ राम दिये गये आसनपर बैठे। (१२) सब कुछ आनन्दके साथ समाप्त हुआ तब स्नान, भोजन आदि करके लक्ष्मणके साथ रामका उसने उस उत्तम भवनमें प्रवेश कराया। (१३) पैरोंमें प्रणाम करके उसने कहा कि, हे देव ! पिताके द्वारा भेजा गया मैं एक दूत हूँ। साररूप अर्थात् संक्षेपमें जो परमार्थ है वह आप मुझसे सुनें। (१४) तब लज्जाका परित्याग करके उसने शरीरपरसे कंचुक उतारा । स्वर्गसे च्युत देवकन्याकी भाँति वह मनोहर प्रतीत होती थी। (१५) यौवन, लावण्य तथा कान्तिसे परिपूर्ण वह उत्तम कन्या कमलरहित लक्ष्मी तथा विश्वकी प्रत्यक्ष शोभा जैसी दिखाई देती थी। (१६) उसे रामने कहा कि, भद्रे! तुमने ऐसा वेश क्यों धारण किया है? हे सुन्दर शरीरवाली कन्ये! अपने ही राज्यमें तुम क्यों दुःखी हो रही हो? (१७) लज्जासे सिर झुकाकर उसने कहा कि, हे देव! आप वृत्तान्त सुनें।
इस नगरका स्वामी वालिखिल्य नामका राजा था । (१८) उसकी पृथ्वी नामकी पत्नी एक बार सगर्भा हुई। उस समय म्लेच्छ राजाने युद्ध में उस राजाको कैद कर लिया। (१९) वालिखिल्यके बन्धनकी बात सुनकर राजा सिंहोदरने
१. विप्पओगे मह-मु.। २. जाव य न तस्स अंत-मु.। ३. इह चेव य भोय-प्रत्य०। ४. लज्ज-प्रत्य। ... अवमुञ्चति-त्यजति।
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