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पउमचरियं
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अह ते नईऍ तीरे, वीसममाणा महावणे भीमे । सीयाऍ समं पेच्छइ, भरहो पासत्थवरघणुया ॥ बहुयदिवसेसु देसो, नो वोलीणो कुमारसीहेहिं । सो भरहेण पवन्नो, दियहेहिं छहि अयत्तेणं ॥ सो चक्खुगोयराओ, तुरयं मोत्तूण केगईपुतो । चलणेसु पउमणाहं, पणमिय मुच्छं समणुषत्तो ॥ पडिबोहिओ य भरहो, रामेणालिगिओ सिणेहेणं । सीयाऍ लक्खणेण य, बाढं संभासिओ विहिणा ॥ भरहो नमियसरीरो, काऊण सिरञ्जलिं भणइ रामं । रज्जं करेहि सुपुरिस ! सयलं आणागुणविसालं ॥ अहयं धरेमि छत्तं, चामरधारो य हवइ सत्तुं जो । लच्छीहरो य मन्ती, तुज्झऽन्नं सुविहियं किं वा ॥ जाव इमो आलावो, वट्टइ तावं रहेण तुरन्तीं । तं चेव समुद्देसं, संपत्ता केगई देवी ॥ ओयरिय रहवराओ, पउम आलिङ्गिऊण रोवन्ती । संभासेइ कमेणं, सीयासहिय च सोमित्तिं ॥ तो गई पत्ता, पुत्त, ! विणीयापुरिम्मि वच्चामो । रज्जं करेहि निययं, भरहो वि य सिक्खणीओ ते ॥ महिला सहावचवला, अदीहपेही सहावमाइल्ला । तं मे खमाहि पुत्तय ! जं पडिकूलं कयं तुज्झ ॥ तो भइ पउमणाहो, अम्मो ! किं खत्तिया अलियवाई । होन्ति महाकुलजाया ? तम्हा भरहो कुणउ रज्जं ॥ तत्थेव काणणवणे, पच्चक्खं सबनरवरिन्दाणं । भरहं ठवेइ रज्जे, रामो सोमित्तिणा सहिओ ॥ नमिऊण केगईए, भुयासु उवगूहिउँ भरहसामिं । अह ते सीयासहिया, संभासिय सबसामन्ते ॥ दक्खिणदेसाभिमुहा, चलिया भरहो वि निययपुरहुत्तो । पत्तो करेइ रज्जं, इन्दो जह देवनयरीए ॥ सो एरिसम्मि रज्जे, न करेइ धिईं खणं पि सोएणं । नवरं पुण अङ्गसुहं, हवइ चिय निणपणामेणं ॥ भरो निणिन्दभवणं, बन्दणहेउं गओ सपरिवारो । थोऊण पेच्छइ मुंणी, नामेण जुई सह गणेणं ॥ ५७ ॥
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विश्राम करते हुए तथा पासमें उत्तम धनुष रखे हुए उन्हें भरतने देखा । (४२) कुमारसिंहोंने जो देश बहुत दिनोंमें पार किया था वह भरतने अनायास ही छः दिनों में पार किया । (४३) चक्षुगोचर होनेपर उस कैकेईपुत्र भरतने घोड़ेको छोड़ दिया और रामके चरणोंमें प्रणाम करके मूर्छित हो गया । (४४) होश में आनेपर भरतको रामने स्नेहसे आलिंगित किया तथा सीता और लक्ष्मणने उसके साथ अनुक्रमसे खूब वार्तालाप किया । (४५) झुके हुए शरीरवाले भरतने सिर पर अंजलि धारण करके रामसे कहा कि, हे सुपुरुष । आप आज्ञागुणसे विशाल ऐसे इस सारे राज्यका पालन करें। (४६) मैं छत्र धारण करूँगा, शत्रुघ्न चामरधर होगा, लक्ष्मण मंत्री होगा। आपके लिए आचरणीय दूसरा क्या है ? (४७) जिस समय ऐसा वार्तालाप रहा था उसी समय रथसे त्वरा करती हुई देवी कैकेई उसो प्रदेशमें आ पहुँची । (४८) रथसे उतरकर रामको आलिंगन देकर रोती हुई उसने सीता सहित लक्ष्मणके साथ संभाषण किया । (४९) तब कैकेईने कहा कि, हे पुत्र ! चलो हम साकेतपुरोमें लौट जायँ । तुम अपना राज्य करो। भरतको भी तुम शिक्षा देना । (५०) स्त्री स्वभावसे ही चंचल, अदीर्घदर्शी तथा स्वभावसे ही माया करनेवाली होती है। अतः, हे पुत्र ! मैंने जो तुम्हारा प्रतिकूल किया है उसके लिए तुम मुझे क्षमा करो । ( ५१ ) इसपर रामने कहा कि, हे माताजी ! क्या बड़े कुलमें उत्पन्न क्षत्रिय मिथ्याभाषी होते हैं ? अतएव भरत राज्य करे । (५२) उसी वनमें सब राजाओंके समक्ष लक्ष्मणके साथ रामने भरतको राज्य पर स्थापित किया । (५३) कैकेईको नमस्कार करके, भरत राजाको भुजाओंसे आलिंगित करके तथा सब सामन्तों के साथ वार्तालाप करके सीताके साथ वे दक्षिणदेशकी ओर चल पड़े। भरत भी अपने नगरकी ओर चला और वहाँ पहुँचकर देवनगरी में इन्द्रकी भाँति वहाँ राज्य करने लगा । (५४-५५) शोकके कारण वह ऐसे राज्यमें क्षणभर धैर्य धारण नहीं करता था। सिर्फ जिनेश्वर भगवान्को वन्दन करनेसे ही उसे शरीर सुख होता था । (५६)
एक बार भरत सपरिवार वन्दन के लिए जिनेन्द्र के मन्दिर में गया । वहाँ स्तुति करनेके पश्चात् उसने गणसे युक्त छति नामके मुनिको देखा । (५७) मुनिको नमस्कार करके धीर भरतने उसके समक्ष यह अभिग्रह लिया कि रामका दर्शन १. गाढं मु । २. मुलिं नामेण जुई - प्रत्य० ।
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