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________________ २६. ६६ ] २६. सीया - भामण्डलुप्पत्तिविहाणं ८३ ॥ ८४ ॥ ८५ ॥ ८६ ॥ ८७ ॥ किं एस महुप्पाओ, अहवा सोदामणीऍ खण्डो ब ? । सवियक्कमणो गन्तुं, पेच्छइ बालं महियलत्थं ॥ ८१ ॥ घेण बालयं तं अंसुमईए सुहं पसुताए । सुकुमाल - कोमलङ्ग, नङ्घुसम्मि संठवइ ॥ ८२ ॥ पडिबोहिऊण साहइ, सुन्दरि ! पुत्तं तुमं पसूया सि । तीए वि यसो भणिओ, किं वञ्झा पसवई नाह! ॥ काऊणय अइहासं, सबं साहेइ बालसंबन्धं । तुज्झ इमो पसयच्छी !, होही पुत्तो अपुत्ताए ॥ भणिऊण एवमेयं, देवी सूयाहरं समल्लीणा । तत्तो पहायसमए, लोयस्स पयासिओ पुत्तो ॥ जम्मूसवो महन्तो, तस्स कओ चकवालनयरम्मि । जह बन्धवा समत्था, लोगो वि य विम्हय पत्तो ॥ कुण्डलमाणिक्कसमुज्जलेहि किरणेहि दित्तसबङ्गो। तो से गुणाणुरूवं, कयं च भामण्डलो नामं ॥ देहसुहलालणट्टे, धाईण समप्पिओ तओ बालो । एतो सुणेहि सेणिय !, पुत्तपलावं विदेहाए ॥ हा पुत्तय ! केण हिओ, मज्झ अपुण्णाऍ पुबवेरीणं । दावेऊण वरनिहिं, अच्छीणि पुणो अवहियाणि ॥ वरकमलकोमलतणू, बालो अविकारिणो अबुद्धोओ । पावेण केण हरिओ, अज्ज महं निरणुकम्पेणं ? नू ओविओगो, कस्स वि बालस्स अन्नजम्मम्मि । तस्सेयं कम्मफलं, न बीजरहियं हवइ फज्जं ॥ ९१ ॥ एवं परिदेवन्ती, जगओ परिसंथवेइ वइदेहिं । मा रोयसु अणुदियहं पुबकयं पावई जीवो ॥ ९२ ॥ छड्डुसु सोगसमूह, लेहं पेसेमि दसरहनिवस्स । सो हं च बालयं तं अज्जषभूई गवेसामो ॥ ९३ ॥ संथाविण कन्तं, अरण्णसुयस्स पेसिओ लेहो । तं सोऊण दसरहो, बालस्स गवेसणं कुणइ ॥ ९४ ॥ सिग्घं चारियपुरिसा, जणएण विसज्जिया समन्तेण । बालं गवेसिऊणं, निययपुरिं आगया सबे ॥ ९५ ॥ साहन्ति कयपणामा, सामि ! न दिट्ठो महिं भमन्तेहिं । केण वि गयणेण हिओ, सामिय ! दिब्रेण पुरिसेणं ॥ ९६॥ ॥ ९० ॥ ८८ ॥ ८९ ॥ देखता है तो पृथ्वीतल पर बालक था । (८१) अति मृदु एवं कोमल अंगवाले उस बालकको उठाकर उसने भारामसे सोई हुई अंशुमता की जाँघके पास रख दिया । (८२) फिर जगाकर कहा कि, हे सुन्दरी ! तुमने पुत्रको जन्म दिया है। उसने भी उससे कहा कि, हे नाथ! वन्ध्या क्या जन्म देगी ? (८३) इस पर अट्टहास करके बालकका सारा वृत्तात उसे कह सुनाया । हे प्रसन्ना ! अपुत्रा तुम्हारा यह पुत्र होगा । (४) ऐसा ही हो— कहकर देवी प्रसूतिगृहमें गई । तब प्रभाव के समय लोगों में जाहिर किया गया कि पुत्र हुआ है। (८५) चक्रवालनगर में तो उसका ऐसा भारी जन्मोत्सव मनाया गया कि समस्त बन्धुजनोंकी भाँति लोग भी विस्मित हो गये । (८६) कुण्डलके माणिक्योंसे निकलनेवाली समुज्ज्वल किरणोंसे उसका सारा शरीर दीप्त था, अतः गुणके अनुरूप उसका नाम भामण्डल रखा गया । (८७) बादमें शरीरसुख एवं लालनपालन के लिए बालक धायोंको सौंपा गया । Jain Education International २२३ हे श्रेणिक ! अब तुम विदेहाके पुत्र प्रलापके बारेमें सुनो । (८) हा पुत्र ! पूर्वके किस वैरीने अपुण्यशाली मेरे पाससे तेरा अपहरण किया है ? उत्तम निधि दे करके मानों आँखें छीन ली हैं। (८९) उत्तम कमलके समान कोमल शरीरवाले, विकारशून्य और बेसमझ मेरे बालकको आज किस निर्दय पापीने हर लिया है ? (९०) अवश्य ही दूसरे जन्ममें मैंने किसी बालकका वियोग किया होगा। उसी कर्मका यह फल है। बीजके बिना फल नहीं होता है । (९१) इस प्रकार रुदन करती हुई विदेहाको जनकने सान्त्वना दी कि तुम मत रोश्रो । जीव सर्वदा पूर्वकृत कर्मका ही फल पाता है । (९२) तुम शोकका परित्याग करो। दशरथ राजाके पास मैं पत्र भेजता हूँ। वह और मैं-हम दोनों उस बालकको आजसे खोजेंगे । (९३) इस तरह पत्नीको आश्वासन देकर दशरथ के पास उसने पत्र भेजा । उसे सुनकर दशरथ बालककी खोज करने लगा । (९४) जनकने शीघ्र ही गुप्तचरोंको चारों ओर भेजा। बालककी खोज करके वे अपनी नगरीमें लौट आये । ( ९५ ) प्रणाम करके वे कहने लगे कि, हे स्वामी ! पृथ्वीपर भ्रमण करते हुए हमने उसे नहीं देखा । हे स्वामी ! १. प्रसूतिगृहम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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