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________________ २०९ २२. ९४] २२. सुकोसलमुणिमाइप्प-दसरहरप्पत्तिवण्णणं पञ्च य महबयाई, समिईओ चेव पञ्च भणियाओ। तिष्णि य गुत्तिनिओगा, एसो धम्मो मुणिवराण ॥ ८० ॥ हिंसालियचोरिक्का, परदारपरिम्गहस्स य नियत्ती । तिण्णि य गुणबयाई, महुमंसविवजणं भणियं ॥ ८१ ॥ भगवं ! गेण्हामि वयं, ज भणसि महामुणी पयत्तेणं । एक्कं पुण हियइ8, नवरि य मंसं न छड्डमि ॥ ८२ ॥ मसिभक्षणविपाकःभणिओ तहेव मुणिणा, भुञ्जसि मंसं अयाणओ तं सि । तह पडिहिसि संसारे, तिमिगिली नह गओ नरयं ॥ ८३ ।। गिद्धा सुणय-सियाला, मंसं खायन्ति असण-तण्हाए । जे वि हु खायन्ति नरा, ते तेहि समान संदेहो ॥ ८४ ॥ जो खाइऊण मंसं, मज्जइ तित्थेसु कुणइ वयनियमं । तं तस्स किलेसयर, अयालकुसुमं व फलरहियं ॥ ८५ ॥ जो भुञ्जह मूढमई, मंसं चिय सुक-रुहिरसंभूयं । सो पावकम्मगरुओ, सुइरं परिभमइ संसारे ॥ ८६ ॥ मंसासायणनिरओ, जीवाण वह करेइ निवखुत्तं । जीववहम्मि य पावं, पावेण य दोग्गई जाइ ॥ ८७ ॥ जे मारिऊण जीवे, मंसं भुञ्जन्ति जीहदोसेणं । ते अहिवडन्ति नरए, दुक्खसहस्साउले भीमे ।। ८८ ॥ ते तत्थ समुप्पन्ना, नरए बहुवेयणे निययकालं । छिज्जन्ति य भिज्जन्ति य, करवत्त-ऽसिवत्त-जन्तेसु ॥ ८९ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, मुणिवरविहियं भएण दुक्खाणं । होउं पसन्नहियओ, सोदासो सावओ जाओ ॥ ९० ॥ तत्तो महापुरे वि य, कालगए पत्थिवे सुयविहूणे । गयखन्धसमारूढो, सोदासो पाविओ रज्जं ॥ ९१ ॥ पुत्तस्स तेण दूओ, विसजिओ कुणह मे लहु पणामं । तेण विभणिओ दूओ, न तस्स अहयं पणिवयामि ॥ ९२ ॥ सोऊण दूयवयणं, सोदासो निम्गओ बलसमग्गो । तस्स विसयं च पत्तो, बन्दियणुग्घुट्ठ जयसद्दो ॥ ९३ ।। सीहरहो वि अहिमुहो, चउरङ्गबलेण तत्थ निग्गन्तुं । आभिट्टो तेण सम, संगामो दारुणो जाओ ॥ ९४ ॥ बड़ा है और श्रावकधर्म छोटा है। (७१) पाँच महाव्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्तिके नियम कहे गये हैं। यह मुनिवरोंका धर्म है। (८०) हिंसा, असत्य, चोरी, परदारा एवं परिग्रहकी निवृत्ति, तीन गुणत्रत तथा मधु-मांसका त्याग-यह गृहस्थोंका धर्म कहा गया है। (८१) राजाने कहा कि, हे भगवन् ! आप महामुनिने तकलीफ उठाकर जिस व्रतके बारे में कहा है उसे मैं अंगीकार करता हूँ, किन्तु मनको प्रिय लगनेवाला मांस केवल नहीं छोडूंगा । (२) इसपर मुनिने कहा कि अनजाने भी यदि तुम मांस खाओगे तो उसी प्रकार तुम संसारमें गिरोगे जिस प्रकार कि तिमिंगल मत्स्य नरकमें गया। (८३) भोजनकी तृष्णासे गीध, कुत्ते, गीदड़ मांस खाते हैं। जो मनुष्य भी मांस खाते हैं वे भी निस्सन्देह उनके जैसे ही हैं। (८०) जो मांस खाकर तीर्थों में स्नान और ब्रत-नियम करता है, वह उसके लिए फलरहित अकालकुसुमको भाँ ति क्लेशकर होता है। (८५) जो मूढमति शुष्क रुधिरसे पैदा होनेवाला मांस खाता है वह पाप-कर्मसे भारी हो दीर्घकालतक संसारमें घूमता है। (६) मांसके आस्वादनमें निरत मनुष्य जीवोंका निश्चित वध करता है। जीववधमें पाप है और पापसे दुर्गतिमें उत्पत्ति होती है। (८७) जीभके दोषसे जो जीवोंको मारकर मांस खाते हैं वे हज़ारों दुःखोंसे व्याकुल ऐसे भयंकर नरकमें जाते हैं। (३) वे बहुत दुःखवाले उस नरकमें उत्पन्न होकर अपने नियत कालतक करवत, तलवार तथा यंत्रोंसे छिन्न-भिन्न किये जाते हैं। (८९) ऐसा मुनिवर द्वारा कहा गया वचन सुनकर दुःखोंके भयसे प्रसन्न हृदयवाला वह सौदास श्रावक हुआ। (९०) उसके बाद महापुरमें पुत्रहीन राजाके मरनेपर हाथीके स्कन्धपर आरूढ़ सौदासने राज्य प्राप्त किया । (९१) उसने पुत्रके पास दूत भेजा कि जल्दी ही आकर मुझे प्रणाम कर। उसने भी तसे कहा कि मैं उसे प्रणाम नहीं करूंगा। (९२) दूतका वचन सुनकर सौवास समन सैन्यके साथ आक्रमणके लिए निकला। बन्दीजनोंके द्वारा जिसके जय शब्दका उद्घोष किया जा रहा है ऐसा वह उसके प्रदेशके पास आ पहुँचा । (६३) सिंहरथ भी सामना करनेके लिए चतुरंग सैन्यके साथ निकल २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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