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________________ ९.९६] १११ ९. वालिणिब्बाणगमणाहियारो मोत्तूण निणवरिन्द, अन्नस्स न पणमिओ तुम बं से । तस्सेयं बलमउलं, दिढ चिय पायर्ड अम्हे ॥ ८३ ।। रूवेण य सीलेण य, बलमाहप्पेण धीरपुरिस ! तुमे । सरिसोन होइ अन्नो, सयले वि य माणुसे लोए ॥ ८४ ॥ अवकारिस्स मह तुमे, दत्तं चिय जीवियं न संदेहो । तह वि य खलो अलज्जो, विसयविरागं न गच्छामि ॥ ८५॥ धन्ना ते सप्पुरिसा, जे तरुणते गया विरागतं । मोत्तूण सन्तविहवं, निस्सङ्गा चेव पवइया ॥ ८६ ॥ एवं थोऊण मुणी, दसाणणो जिणहरं समल्लीणो । निययजुबईहि सहिओ, रएइ पूर्य अइमहन्तं ॥ ८७ ॥ तो चन्दहासअसिणा, उक्कत्तेऊण निययबाहं सो । हारुमयतन्तिनिवहं, वाएइ सविब्भमं वीणं ॥ ८८ ॥ थोऊण समाढत्तो, पुण्णपवित्तक्खरेहि निणयन्दं । सत्तसरसंपउत्तं, गीयं च निवेसियं विहिणा ॥ ८९ ॥ अष्टापदस्थजिनस्तुतिःमोहन्धयारतिमिरं, जेणेयं नासियं चिरपरूढं । केवलकरसु दूरं, नमामि तं उसभनिणभाणु ॥ ९० ॥ अजियं पि संभवजिणं, नमामि अभिनन्दणं सुमइनाहं । पउमप्पहं सुपासं, पणओ हं ससिपमै भयवं ॥ ९१ ॥ थोसामि पुप्फदन्तं, दन्तं जेणिन्दियारिसंघाय । सिवमग्गदेसणयरं, सीयलसामि पणमिओ हं ॥ ९२ ॥ सेय॑सनिणवरिन्दं, इन्दसमाणन्दियं च वसुपुजं । विमलं अणन्त धम्मं, अणन्नमणसो पणिवयामि ॥ ९३ ॥ सन्ति कुन्थु अरजिणं, मल्लिं मुणिसुवयं नमि नेमि । पणमामि पास वीर भवनिग्गमकारणट्टाए ॥ ९४ ॥ जे य भविस्सन्ति जिणा, अणगारा गणहरा तवसमिद्धा । ते वि हु नमामि सबे, वाया-मण-कायजोएसु ॥ ९५ ॥ गायन्तस्स जिणथुई, धरणो नाऊण अवहिविसएण । अह निम्गओ तुरन्तो, अट्ठावयपवयं पत्तो ॥ ९६ ॥ - रूप, शील एवं बलकी महत्तामें तुम्हारे सहश कोई भी पुरुष इस मनुष्यलोकमें नहीं है। (८४) अपकार करनेवाले मुझको तुमने जीवनदान दिया है, इसमें सन्देह नहीं है। फिर भी दुष्ट और निर्लज्ज मैं विषयोंमें रागभाव का परित्याग नहीं करता । (८५) वे सत्पुरुष धन्य हैं जो तरुणावस्थामें ही विरक्त हुए और अपने वर्तमान वैभवका त्याग करके निःसंग हो प्रब्रजित हुए । (६) इस प्रकार मुनिकी स्तुति करके दशानन अपनी युवती स्त्रियों के साथ जिनमन्दिरमें गया और वहाँ बड़ी भारी पूजा रची। (८७) इसके पश्चात् चन्द्रहास नामकी तलवारके द्वारा अपनी भुजा काटकर और उसकी शिराओंसे वीणाके तार जोड़कर उसने भक्तिभावसे पूर्ण हो वीणा बजाई । (८) इसके पश्चात् शुभ एवं पवित्र अक्षरोंसे वह जिनचन्द्रकी स्तुति करने लगा और सातों स्वरोंका जिसमें उपयोग किया गया है ऐसा गीत विधिपूर्वक गाने लगा कि चिरकालसे उत्पन्न मोहरूपी अन्धकारको जिसने केवल ज्ञानरूपी किरणोंसे सर्वदा नष्ट किया है ऐसे उस ऋषभ जिनरूपी सूर्यको मैं नमस्कार करता हूँ। (८९.९०) अजित, सम्भव जिनेश्वर, अभिनन्दन तथा सुमतिनाथको प्रणाम करता हूँ। पद्मप्रभ, सुपार्श्व तथा भगवान् शशिप्रभ (चन्द्रप्रभ ) को मैं वन्दन करता हूँ। (९१) इन्द्रियरूपी शत्रुसमूहका दमन करनेवाले पुष्पदन्तकी मैं स्तुति करता हूं। शिव-मार्गका उपदेश देनेवाले शीतल स्वामीको मैं वन्दन करता हूं। (९२) जिनवरोंमें इन्द्रतुल्य श्रेयांसको, इन्द्रों को आनन्द देनेवाले वासुपूज्य स्वामीको तथा विमल, अनन्त और धर्मको अनन्य मनसे प्रणाम करता हूँ। (९३) शान्ति, कुंथु, अर जिनेश्वर, मल्लि, मुनिसुव्रतस्वामी, नमि, नेमि, पार्श्व तथा महावीरस्वामीको जन्मके चक्रमेंसे बाहर निकलनेके लिए प्रणाम करता हूँ। (६४) भविष्यमें जो जिन, अनगार, गणधर और तपसे समृद्ध तपस्वी होंगे उन सबको मैं मन, वचन एवं काय इन तीनों प्रकारके योगसे नमस्कार करता हूँ। (९५) धरणेन्द्रसे शक्तिकी प्राप्ति और स्वदेशगमन इस प्रकार रावण जब स्तुति कर रहा था तब अवधिज्ञानसे जानकर धरणेन्द्र फौरन अपने स्थानसे निकला और १. मुणिं दहवयणो-प्रत्यः । २. जिणइंद-प्रत्यः। ३. जेणं चिय नासियं-प्रत्यः। ४. सयाणं दियं-मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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