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जीवन के चौराहे पर
जगत् में कितने अगणित जीव-जन्तु भरे पड़े हैं। नाना प्रकार के पशु-पक्षी, कीड़े, मकोड़े तो हैं ही, लाखों प्रकार की वनस्पति और दूसरे भी छोटे-बड़े असंख्य प्रकार के प्राणी भी हैं। उनकी आत्मा में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। अन्तर है केवल शरीर का और आत्मिक शक्तियों के विकास का । इसी अन्तर ने मनुष्य में और दूसरे प्राणियों में बड़ा भेद पैदा कर दिया है। इसीलिए शास्त्र मानव-जीवन की गौरव-गाथा गाता है और मानव भी अपनी स्थिति पर गर्व करता है, अपने को धन्य मानता है । पर, मनुष्य को यह भी सोचना है कि इस जीवन के लिए उसे कितनी तैयारी करनी पड़ी है ? किस प्रकार की साधनाएँ करनी पड़ी हैं ?
बड़ी-बड़ी तैयारियाँ और साधनाएँ करने के बाद जो दिव्य-जीवन मिला है, उसकी क्या उपयोगिता है ? क्या, यह जीवन भोग-विलास में लिप्त रहने के लिए है, धनसंचय या मान-प्रतिष्ठा के पीछे भटकते-भटकते समाप्त हो जाने के लिए है ? क्या, इसलिए है कि एक दिन संसार में यों ही आए और यों ही चले गए ? । आवागमन
जो आया है, वह तो जाएगा ही, चाहे कोई भिखारी हो, दरिद्र हो, अथवा राजा हो, सेठ हो । यह आवागमन का क्रम अनादि काल से चलता आ रहा है, आज भी चल रहा है और भविष्य में भी चलता रहेगा। प्रकृति के इस क्रम को रोकना आपके वश की बात नहीं है । चक्रवर्ती सम्राट् की शक्तिशाली सत्ता भी इसे बन्द नहीं कर सकती । यहाँ तक कि असंख्य देवी-देवताओं पर शासन करने वाला देवाधिपति इन्द्र भी इसे रोकने में असमर्थ है। संसार में कोई ऐसी जगह नहीं कि जहाँ हम जम कर बैठ गए तो अब उठेगे ही नहीं । यद्यपि, व्यक्ति यही चाहता है कि वह न उठे, किन्तु उसके चाहने की यहाँ कोई कीमत नहीं है। एक सामान्य व्यक्ति तो क्या, बड़े-बड़े शक्तिशाली यहाँ आए और चले गए। जिनकी मदमाती सत्ता ने एक दिन संसार में भूकम्प पैदा कर दिया था, जिनकी सेनाओं ने हिन्दुस्तान के कोने-कोने को रौंद डाला था और अपना खजाना भर लिया था, उनकी शक्ति भी यहाँ विफल हो गई। लाखों वीरों की सुदृढ़ सेना एक ओर दीन-भाव से खड़ी रही और जो बड़े-बड़े मंत्री यह कहते थे कि बाल की खाल निकाल देंगे और कोई न कोई रास्ता निकालेंगे, परन्तु आवागमन के प्राकृतिक कार्यक्रम को रोकने में उनकी विलक्षणबुद्धि भी कुछ काम न दे सकी। देवी-देवता खड़े रहे, उनसे भी कुछ नहीं बना। एक साधारण आदमी
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