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अहिंसा-दर्शन
जनता के हित का कोई काम नहीं कर सकता, क्योंकि महारंभ हो जाएगा। और जनता के सम्बन्ध में यदि वह कुछ भी विचार न करे तो वह एक प्रकार से निर्जीव मांस का पिण्ड ही माना जाएगा। मनुष्य खुद तो दुनियाभर के भोग-विलास करता रहे, किन्तु जनता के हित के लिए कोई भी सत्कर्म न करे, किमाश्चर्यमतः परम् ! भयानक भूल
अभिप्राय यह है कि जैन-धर्म कोरे मिथ्या आदर्श या कल्पना पर चलने वाला धर्म नहीं है। यह तो पूर्णतः यथार्थवादी धर्म है । यह आदर्श को अपने सामने रखता अवश्य है, पर उसकी दृष्टि सदैव व्यबहार और वास्तविकता पर रहती है । इसने स्फोट-कर्म किसे बताया था और हम उसे भूल कर क्या समझ बैठे हैं ! जो लोग खेती कर रहे हैं, उन्हें महारंभी कहने लगे । और कितने दुःख की बात है महारंभी कह कर उन्हें भी पशु-हिंसकों की अधम श्रेणी में रख दिया गया है । ऐसा करने वालों ने वास्तव में कितना गलत काम किया है ? वे समझते हैं कि हम कृषि की आजीविका को गहित ठहरा रहे हैं । पर, वे वास्तव में कसाईखाने की आजीविका की भयानकता एवं गहितता को कम कर रहे हैं । पशु-वध और कृषि, दोनों को महारंभ की एक ही कोटि में रख कर कितनी बड़ी भूल की है। काश कुछ सोचा तो होता !
__ एक कसाई और एक कृषक जब यह सुनता है कि कसाई-खाना चलाना भी महारंभ है और कृषि भी महारंभ है, तो कसाई को अपनी आजीविका त्याग देने की प्रेरणा नहीं मिल सकती। वह कृषक की कोटि में अपने आपको पा कर दुगुने उत्साह का अनुभव करेगा और सन्तोष मानेगा । यदि पशु-वध को त्याग देने का विचार उसके दिमाग में उठ भी रहा होगा, तब भी वह न त्यागेगा। दूसरी ओर जब कृषक यह जानेगा कि उसकी आजीविका भी कसाई की आजीविका के समान है और जब उसे इस बात बात पर विश्वास भी हो जाएगा; तब कौन कह सकता है कि कृषि जैसे श्रमसाध्य धन्धे को त्याग कर वह कसाईखाने की आजीविका को न अपना ले ?
कितने खेद की बात है कि इस प्रकार भ्रांति में पड़ कर और गलत विवेचनाएं करके हमने भगवान महावीर के उपदेशों की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ाई, बल्फि क्षुद्र स्वार्थों में फंस कर घटाई ही है।
एक गृहस्थ से देहली में भेंट होने पर मैंने पूछा-“कहिए, क्या बात है ?" उसने कहा--"आपकी कृपा है, बड़े आनन्द में हूँ। महाराज, मैं पहले बहुत दुखी था । खेती का काम करता था तो महा-हिंसा का काम होता था । अब जमीन बेच कर चाँदी का सट्टा करता हूँ । बस, कोई झगड़ा-टंटा नहीं है। न जाने, किस पाप-कर्म का उदय था कि खेती जैसे महापाप के काम में फंसा था । अब पूर्वपुण्य का उदय हुआ तो उससे छुटकारा मिला है । अब सट्टे का धन्धा बिल्कुल प्रासुक (निर्दोष) धन्धा है। न कोई हिंसा है, न कोई बड़ा पाप ।"
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