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________________ श्रावक और स्फोटकर्म ३५५ उन्हें भी पूर्णतया अहिंसा का प्रमाण पत्र नहीं मिल जाता है । साधु-जीवन में भी 'आरंभिया' और 'मायावत्तिया' क्रिया चालू रहती है । जब पूर्ण अप्रमत्त अवस्था आती है तो आरंभिया क्रिया छूट जाती है, किन्तु हिंसा फिर भी बनी रहती है और आगे भी जारी रहती है, यद्यपि उस हिंसा में आरम्भ छूट जाता है । उस दशा में हिंसा रहती है, पर आरंभ नहीं रहता, यह एक मार्मिक बात है । इस मर्म को बराबर समझने की कोशिश करनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि वहाँ गमनागमनादि प्रवृत्ति में द्रव्य - हिंसा तो है, किन्तु अन्तर्मन में हिंसा के भाव न होने से भाव - हिंसा नहीं है । ज्यों ही साधक जागृत होता है, त्यों ही उसमें अप्रमत्तभाव उत्पन्न हो जाता है | जब अप्रमत्तभाव होता है, तब भी बाह्यक्रियास्वरूप द्रव्य - हिंसा तो बनी रहती है, किन्तु उसमें आन्तरिक भाव- हिंसा नहीं रहती । संकल्पी या उद्योगी हिंसा अब देखना चाहिए कि जीवन के क्ष ेत्र में, श्रावक जब उद्योग-धन्धे के रूप में कोई काम करता है तो वहाँ उसकी कार्य - विधि एकान्त हिंसा की दृष्टि से ही रहती है या उसमें उद्योग-धन्धे की दृष्टि भी कुछ काम करती है ? उसके व्यवसाय का उद्देश्य केवल जीवों को मारना होता है या उद्योग-धन्धे के ही मूल उद्देश्य को ले कर व्यापार करना होता है ? कृषि के सम्बन्ध में भी इसी दृष्टि से सोचना चाहिए। देहात के सैकड़ों किसान बहुत सबेरे ही उठ कर खेतों में काम करने जाते हैं । पंजाब और उत्तरप्रदेश के जैनकिसान कृषि का धंधा करते हैं, और वे प्राय: बड़े ही भावपूर्ण और श्रद्धालु होते हैं । सम्भव है, वह श्रद्धा व्यापारियों में न भी हो । किन्तु उनमें तो इतना प्रेम है और उनके हृदय प्रेमरस से इतने भरे होते हैं कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । यद्यपि वे पसीने से तर हो कर खेतों से वापस आते हैं, किन्तु ज्यों ही वे साधु को गृह-द्वार पर देखते हैं कि झट से उनके पास आ जाते हैं और 'सामायिक' करवाने की प्रार्थना करने लगते हैं । वे बराबर 'सामायिक' और 'पौषध' १० आदि करते हैं । जब साधु गोचरी के लिए निकलते हैं तो एक तूफान सा मच जाता है । सब यही चाहते हैं कि पहले मेरे घर को पवित्र करें । ६ प्राणिहिंसा मूलक दोष 'आरंभिया' क्रिया कहलाती है। और क्रोध, मान, मायादम्भ एवं लोभ- मूलक दोषों को 'मायावत्तिया' क्रिया कहते हैं । १० ' सामायिक' जैन-धर्म की वह साधना है, जिसमें गृहस्थ दो घड़ी के लिए हिंसा, असत्य आदि पापाचरण का त्याग कर, अपनी अन्तरात्मा को परमात्म-भाव में लीन करने का प्रयत्न करता है । 'पौषध' वह साधना है, जिसमें सूर्योदय से ले कर अगले दिन प्रकार से हिंसा, असत्य आदि पापाचरण और भोजन का स्थान में साधु जैसी वृत्ति का अभ्यास किया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only सूर्योदय तक सब त्याग कर एकान्त www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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