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श्रावक और स्फोटकर्म
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निर्मल होता है और जहाँ पूर्णता है, वहाँ भेद नहीं होता । यही कारण है कि मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञानों के जहाँ सैकड़ों भेद गिनाए गए हैं, वहाँ क्षायिक-ज्ञान अर्थात्- 'केवल-ज्ञान' एक ही प्रकार का बताया गया है।
इसी प्रकार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के भी असंख्य भेद हैं, जबकि क्षायिक सम्यक्त्व अखण्ड है। आखिर क्षायिक सम्यक्त्व में यह विशिष्टता क्यों आई ? यदि इसमें मिथ्यात्व-मोहनीयजन्य विकारों का जरा भी मैल होता तो अवश्य ही किसी न किसी अंश में भेद प्रकट हो जाता। जहाँ अपूर्णता है, वहाँ भिन्नता अनिवार्य है और जहाँ अभिन्नता एवं अखण्डता है, वहां पूर्णता विद्यमान है । क्षायिक सम्यक्त्व की भूमिका इतनी विशुद्ध है कि वहां दर्शन-सम्बन्धी विकारों का मैल अणुमात्र भी नहीं पाया जाता । और जब मैल नहीं रह जाता है तब वह अखण्ड-निर्विकल्प हो जाता है।
भगवान् को निर्मल क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त था । यह अनुमान करने की चीज है कि उसके लिए कितनी अनुकम्पा होनी चाहिए ? शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य; ये सब सम्यक्त्व के ही लक्षण हैं। किन्तु जो गुण सबसे अधिक चमकता हुआ है और जिससे सम्यक्त्व की परख की जाती है, वह है 'अनुकम्पा' ।
भगवान् के हृदय में कितनी दया, कितनी करुणा और कितनी अनुकम्पा थी? उनके अन्तःकरण में करुणा का सागर लहरा रहा था। वे जो भी प्रवृत्ति करते, उसमें भले ही अनिवार्य हिंसा हो, परन्तु उस हिंसा के पीछे भी करुणा छिपी रहती थी। कदाचित् ऐसी शंका हो सकती है कि यहाँ अन्धकार और प्रकाश को एक किया जा रहा है ? किन्तु बात ऐसी नहीं है । हिंसा तो अशक्यपरिहारस्वरूप आचार में होती है, फिर भी विचार में तो दया और करुणा का निर्मल झरना बहता रह सकता है। अनुकम्पा
अस्तु, कथन का आशय यह है कि दूसरे सम्यक्त्व में तो विचार-सम्बन्धी आंशिक मैल चल सकता है, परन्तु क्षायिक सम्यक्त्व में अणुमात्र भी वह खप नहीं सकता। भगवान् ऋषभदेव की प्रवृत्ति क्षायिक सम्यक्त्व की भूमिका से आरम्भ हुई है । जहाँ क्षायिक सम्यक्त्व है, वहाँ असीम अनुकम्पा है । ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता कि सम्यक्त्व प्रकट हो, परन्तु अनुकम्पा प्रदर्शित न हो ? यह कदापि सम्भव नहीं है कि सूर्य हो, परन्तु प्रकाश न हो; मिश्री की डली हो, किन्तु मिठास न हो। ऐसी असंगत बात कभी बनने वाली नहीं है। उससे निष्कर्ष यही निकाला जा सकता है कि सम्यक्त्व के साथ अनुकम्पा का अविच्छिन्न सम्बन्ध है; अर्थात-अनुकम्पा के बिना सम्यक्त्व टिक नहीं सकता। अनुकम्पा के अभाव में सम्यक्त्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जब इस दृष्टि से कोई विचार करेगा तो उसे स्पष्ट अनुभव होगा कि भगवान् के द्वारा जो भी प्रवृत्तियाँ हुई हैं, उनके पीछे अनुकम्पा तो अवश्य ही थी।
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