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________________ श्रावक और स्फोटकर्म ३५१ ला नहीं बना सकी। उनकी अमर वाणी हम आपके सामने रख रहे हैं । वे कहते हैं - 'भगवान् महावीर के प्रति हमें पक्षपात नहीं है । वे हमारी जाति-बिरादरी के नहीं और सगे-सम्बन्धी भी नहीं हैं । किन्तु सत्याचरण और कठिन साधना से आखिर - कार वे भगवान् के पद पर प्रतिष्ठित हो चुके हैं, अतः उनकी वाणी के सम्बन्ध में हम जो भी विचार करते हैं, वह किसी तरह का पक्षपात ले कर नहीं । और कपिल आदि जो अन्य महर्षि हो चुके हैं, उनके प्रति हमें लेशमात्र भी द्वेष और घृणा नहीं है । जो भी सत्य के उपासक आज तक प्रकाश में आए हैं, हम उन सबके विचारों का तटस्थ - वृत्ति से अध्ययन करते हैं, उन सब की वाणी का चिन्तन, मनन और विश्लेषण करते हैं, जिसके विचार सत्य की निष्पक्ष कसौटी पर खरे उतरते हैं, उसी के विचारों को निःशंकभाव से स्वीकार करते हैं और उसी का आदर-सम्मान भी करते हैं । ४ परीक्षा की तराजू ऐसा मालूम पड़ता है कि आचार्य ने भगवान् को भी परीक्षा की तराजू पर रख दिया है । कदाचित् आचार्य उस सत्य को तौल रहे हैं, जो शतियों से और सहस्राब्दियों से बराबर तौला जा रहा है । यदि इस तराजू पर किसी सम्प्रदाय - विशेष को तोला जाए तो वह तौल पर पूरा नहीं उतरता है । क्योंकि जितने भी सम्प्रदाय हैं, उनमें प्रायः सत्य की अपेक्षा स्वार्थ की प्रधानता होती है; अतः जहाँ स्वार्थ की प्रधानता है, वहाँ सत्य का साक्षात्कार दुर्लभ है । अस्तु, एकमात्र सत्य को ही तोलने चलोगे तो वही तोल ठीक होगा । लक्ष्य-बिन्दु मान कर , आखिर, सोचने की बात यह है कि आप भगवान् महावीर की पूजा क्यों करते हैं ? उनका सत्कार और सम्मान क्यों करते हैं ? आखिर उनमें ऐसा क्या चमत्कार है, जो हम अपने को उनके चरणों में समर्पित करते हैं । उनके जीवन का जो परम सत्य है, वही तो उनकी पूजा और उनका सत्कार-सम्मान करवाता है । भगवान् की पूजा उनके गुणों की पूजा है । इस पूजा से उनके शरीर का रूप सौन्दर्य का और बाह्य ऐश्वर्य का कोई सम्बन्ध नहीं है । भारत के एक बड़े आचार्य ने तो स्वयं भगवान् के ही मुँह से कहलाया है— "हे भिक्षुओं ! मेरे वचनों को भी परीक्षणात्मक दृष्टि से सत्य की कसौटी पर जाँचो, और परखो | अच्छी तरह से जाँचने और परखने के पश्चात् यदि वे तुम्हें ग्रहण करने योग्य प्रतीत हों तो ग्रहण करो । केवल मेरे बड़प्पन के कारण ही मेरे वचनों को मत मानो । सत्य के पक्ष को प्रधानता न दे कर केवल गुरु के पक्ष पर ही अड़े रहना ४ " पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः || ” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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