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________________ ३४८ अहिंसा-दर्शन बल्कि ज्यों ही यह बात वादी या प्रतिवादी को मालूम हो जाती है, वह उस न्यायालय को छोड़ कर दूसरे न्यायालय में जाने की प्रार्थना करता है। यद्यपि यह ठीक है कि फैसला किसी एक के ही पक्ष में होगा, किंतु निर्णय देने से पहले ही यदि निर्णय कर लिया जाता है और दिमाग में पहले ही पक्ष-विशेष का भाव भर लिया जाता है तो न्याय का उत्तरदायित्त्व ठीक-ठीक अदा नहीं किया जा सकता । पक्षपात के पंक में कर्तव्य के कदम बिना सने रह नहीं सकते । ठीक, यही बात शास्त्रों के सम्बन्ध में भी है । जब कोई किसी भी शास्त्रीय विषय पर गहराई से विचार करने के लिए उद्यत हो तो पहले उसे अपनी बुद्धि को निष्पक्ष बना ले, और अपने भाव को तटस्थ रखे । यदि निष्पक्षबुद्धि रख कर चलेगा तो सिद्धांत और जीवन को सही-सही परख सकेगा, और साथ ही समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को भी समझ सकेगा । अन्यथा, व्यर्थ ही शास्त्रों की गर्दन मरोड़ता रहेगा और अपने जीवन को भी नहीं परख सकेगा। इस सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र ने एक बड़ी ही सुन्दर बात कही है :जब कदाग्रही और पक्षपाती मनुष्य किसी सिद्धांत पर विचार करता है तब वह शास्त्रों को, दलीलों को तथा युक्तियों को भी खींचकर घसीटता हुआ वहीं ले जाता है, जहाँ उसकी बुद्धि ने पहले से ही कदम जमा रखा है। ऐसे लोग शास्त्र के आशय तथा औचित्य को भी नहीं देख पाते। बस, उनका मुख्य ध्येय यही होता है कि किसी प्रकार मेरी मनगढन्त धारणा को पुष्टि मिले । किंतु जो पक्षपात से रहित होता है वह अपनी धारणा को वहीं ले जाता है, जहाँ युक्ति या शास्त्र का कथन उसे ले जाने की प्रेरणा देते हैं । पक्षपात किसे कहते हैं ? पक्ष का अर्थ 'पंख' है। पक्षी जब उड़ता है तो उसके दोनों पंख ठीक और सम रहने चाहिए। तभी वह ठीक तरह से गति कर सकता है, ऊँची उड़ान भर सकता है और लम्बे-लम्बे मैदानों को शीघ्रता से पार कर सकता है । किंतु यदि उस पक्षी का एक पंख टूट जाए तो वह उड़ नहीं सकता। इसी प्रकार जहाँ पक्षपात हुआ, और मनुष्य एक पक्ष का सहारा ले कर चला तो वहाँ सिद्धांत, विचार और चिंतन ऊपर नहीं उठ सकते, बल्कि वे रेंगते दिखाई पड़ेंगे। पक्षपात का स्पष्ट अर्थ है-सत्य के पंख टूट जाना। अतः आवश्यकता इस बात की है कि जब कोई सिद्धांत के किसी विषय पर विचार करे तो अपना दिल और दिमाग साफ रखे और गम्भीर विचार-मंथन के द्वारा सत्य का जो मक्खन निकले, उसे ग्रहण करने को सदैव तैयार रहे। सत्य की पूजा पहले हमारी बुद्धि विकसित थी तो हम आग्रह को, अहंकार को और किसी १ "आग्रही बत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपात-रहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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