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________________ रोजी, रोटी और अहिंसा ३३७ भगवान ऋषभदेव ने कहा है कि-"अनार्यमार्ग से रोटी मत पैदा करो। जहाँ दूसरों का खून बहाया जाता है, बिना विवेक-विचार के और महारौद्रभाव से बहाया जाता है, वे सब अनार्यकर्म हैं । शिकार खेलना, माँस खाना, जुआ खेलना आदि; सब अनार्यकर्म हैं। इन अनार्यकर्मों के द्वारा जो रोटी आती है, वह रोटी नहीं, अपितु रोटी के रूप में पाप आता है, जो जीवन का पतन करने वाला होता है। जैनसमाज में 'प्रासुक' कामों की बड़ी चर्चा चला करती है । 'प्रासुक' वे काम कहलाते हैं, जिनमें हिंसा न हो, या हो भी तो अत्यल्प । दो जूएबाज आमनेसामने बैठे हैं। ताश का पत्ता उठा कर फेंका कि बस हार-जीत हुई और हजारों इधर से उधर हो गए। ऊपर-ऊपर से तो ऐसा मालूम होता है कि इसमें कोई हिसा नहीं हुई । यदि दुकान करते हैं तो हिंसा होती है, दफ्तर जाते हैं तो हिंसा होती है । जीविका के लिए जो कुछ भी कार्य करते हैं, तो हिंसा हुए बिना नहीं रहती। किंतु जुआ खेलना ऐसा 'प्रासुक' काम है कि उसमें हिंसा नहीं है । बहुतों की ऐसी धारणा है, परन्तु विचार करना चाहिए कि यह महारम्भ है या अल्पारम्भ ? नीति है या अनीति है ? कोई विचार करें या न करें किंतु इस सम्बन्ध में शास्त्रों ने तो निर्णय किया है और स्पष्ट बताया है कि-सात दुर्व्यसनों में जुआ खेलना पहला दुर्व्यसन है। मांस खाने और मद्य पीने की गणना बाद में की गई है, सबसे पहले जुए की ही गर्दन पकड़ी गई है । यद्यपि जुआ खेलने में बाहर से कोई हिंसा दिखाई नहीं देती, परन्तु सिर्फ एक पत्ते के रूप में अन्दर में हिंसा का कितना गहरा दूषण है, जो दूर-दूर तक न जाने कितने परिवारों को उजाड़ देता है। जुआरी का अन्तःकरण कितना संक्लेशमय रहता है, कितना व्याकुल रहता है, और जुए की बदौलत कितनी अनीति और कितनी बुराइयाँ जीवन में प्रवेश करती हैं, इन समस्त दूषण-चक्रों को कोई चाहे न देख सकता हो, परन्तु शास्त्रकार की दूरदर्शी सूक्ष्म दृष्टि से यह सब कुछ छिपा नहीं है। इस प्रकार संसार के सोचने का ढंग कुछ और होता है, और शास्त्रकारों का दृष्टिकोण कुछ और ही होता है । कहने का आशय यह है कि अन्न अपने आप में जीवन की बहुत महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। कपड़े की भी आवश्यकता है और दूसरी चीजों की भी आवश्यकता है, परन्तु पेट भरने की आवश्यकता सबसे पहली है। अन्न इतना महत्त्वपूर्ण है कि यदि संसारमर का धन एक तरफ रखा जाए और अन्न दूसरी तरफ तो तराजू में अन्न का पलड़ा भारी रहेगा और दूसरी चीजों का हल्का । हीरों की अपेक्षा अन्न का महत्त्व जैनाचार्यों ने सम्राट विक्रमादित्य का जीवन-चरित्र लिखा है । एक बार सम्राट हाथी पर सवार हो कर निकल रहे थे । मन्त्री और सेनापति पास में बैठे थे। जब अनाज की मण्डी से सवारी निकली तो सम्राट ने अपने मन्त्री से कहा-'कितने हीरे बिखरे पड़े हैं !' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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