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________________ मानव-जीवन और कृषि-उद्योग ३१६ अवधिज्ञान लूला-लँगड़ा या भूला-भटका, अर्थात् विभंगज्ञान नहीं था। वह विशुद्ध ज्ञान था । उस स्थिति में भगवान् ने जो कुछ भी किया, वह सब क्या था ? करुणा का झरना प्रागतिहासिक काल के युगलियों की जनता को खाना तो जरूरी था ही, पर काम नहीं करना था । सर्दी से बचने के लिए कपड़ा या मकान कुछ भी चाहिए, जो आवश्यक ही था, किन्तु वस्त्र या मकान नहीं बनाना था। जीवन तो जीवन की तरह ही बिताना था, परन्तु पुरुषार्थ की आवश्यकता समझ में नहीं आई थी। इसी स्थिति में चलते-चलते युगलिया-जन भगवान् ऋषभदेव के युग में आ गए। इस युग में कल्पवृक्षों के कम हो जाने से आवश्यकताओं की पूर्ति में गड़बड़ी होने लगी, फलस्वरूप जनता भूख से आकुल हो उठी। पेट में भूख की आग सुलगने लगी और तत्कालीन जनता उसमें भस्म होने लगी। उसे देख कर भगवान् के हृदय में अपार करुणा का झरना बह उठा और उन्होंने जनता की भूख की सुलगती समस्या को शान्त किया। इसी सम्बन्ध में आचार्य समन्तभद्र ने कहा है -- "भगवान् के कोमल हृदय में अपार करुणा का झरना बहा और उन्होंने देखा कि यह सारी जनता भूख की ज्वाला से पीड़ित हो कर खत्म हो जाएगी, आपस में लड़-लड़ कर मर जायगी, खून की धाराएँ बहने लगेंगी ; तो भगवान् ने उस अकर्मण्यप्रजा को कर्म की और पुरुषार्थ की नव-चेतना दी और अपने हाथ-पैरों से काम लेना सिखलाया। कर्तव्यविमूढ़ प्रजा को कर्मभूमि में अवतरित किया और भुखमरी की समस्या को अपने हाथों सुलझाने की सही दिशा दिखलाई। दूसरे शब्दों में कहें तो कषिकर्म करना सिखलाया।" बगावत नहीं, इन्कलाब अन्न का दाना और तन का कपड़ा-दोनों कृषि से प्राप्त होते हैं। जिन्दगी की प्रमुख आवश्यकताएँ केवल दो ही हैं--अन्न और कपड़ा। जनता के कोलाहल में यही ध्वनि फूटती है कि 'रोटी' और 'कपड़ा' चाहिए । फ्रांस का सम्राट् लुई महलों में आनन्द कर रहा था और हजारों की संख्या में प्रजाजन भूख से छटपटाते नीचे से आवाज लगाते हुए गुजरे कि-"रोटी दो या गद्दी छोड़ो !" ६ जैन-धर्म मानता है कि वर्तमान काल-चक्र की आदि में मानव-जाति वन-सभ्यता में रहती थी , नगर नहीं थे, उद्योग-धन्धे नहीं थे, किसी प्रकार का शासन भी नहीं था। सब लोग वृक्षों के नीचे रहते थे और भिन्न-भिन्न कल्पवृक्षों से ही अपनी भोजन, वस्त्र आदि की आवश्यकताएँ पूरी करते थे। ये लोग शास्त्र की भाषा में यौगलिक यानी युगलिया कहलाते थे। ७ "प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः, शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।" -~-बृहत्स्वयंभूस्तोत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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