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________________ ३१६ अहिंसा -दर्शन निहित स्वार्थो की सिद्धि के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र की अभीष्ट समृद्धि के लिए । मध्यकाल में जैन- चिन्तन-पद्धति विकृत हो गई थी और उसके कारण जैनधर्म के उज्ज्वल मुख पर कालिख लग गई है । उसे साफ करने का काम किसी परोक्ष देवी-देवता का नहीं, बल्कि जैनधर्मानुयायियों का है । वे ही उस कालिख को दूर कर सकते हैं । भगवान् महावीर के उज्ज्वल सिद्धान्तों पर काल-दोष से या भ्रान्त-बुद्धि से जो धूल जम गई है, उसे साफ करने का एकमात्र उत्तरदायित्व आज आप जैन कहलाने वाले भक्तों पर आ पड़ा है । यदि आज भी जैन मतावलम्बी यही सोचते हैं-अजी, क्या है ! संसार तो यों ही चलता रहेगा । लोग भूखे मरें तो क्या ? खाने को मिले तो खाओ, और यदि नहीं भी मिले तो ज्यों ही खाने के लिए काम किया या अन्न पैदा किया तो कर्मों का बंध हो जाएगा। इस प्रकार खाने-पीने की बातों में आत्मा का कल्याण नहीं होना है । ये सब संसार की कपोलकल्पित बातें हैं, और संसार की बातों से हमारा सम्बन्ध ही क्या है ? जो संसार का मार्ग है, वह बंधन का ही मार्ग है, एक प्रकार से नरक का ही ता है। पेट की समस्या किन्तु उन्हें यह भी जानना चाहिए कि जीवन में पेट की समस्या ही बहुत बड़ी समस्या है । जब कभी किसी को भूख लगे और भोजन के लिए एक अन्न कण भी न मिले, तब चिन्तन की गहराई में वह अपनी बुद्धि का गज डाले, उस समय पता लगेगा कि भूखों की क्या शोचनीय अवस्था होती हैं ? उस समय धर्म-कर्म की मरहमपट्टी काम देती है या नहीं ? जब मनुष्य भूख की पीड़ा से व्याकुल होता है, आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है और मृत्यु का नंगा नाच होने लगता है, उस हालत में समता या दृढ़ता का मरहम लगाने वाला सौ में से एक भी शायद ही निकले, अन्यथा सभी घायल हो कर सहज में अकाल मृत्यु की भेंट चढ़ जाते हैं । अस्तु, जैन-धर्म कहता है कि जीवन में सबसे बड़ी वेदना भूख की है । जैनशास्त्रों में जो बाईस परीषह आते हैं, उनमें पहला परीषह क्षुधा का है । शेष ताड़न या वध आदि क्रूर परीषहों का क्रमिक स्थान बहुत दूर है । स्थूल हिंसा के रूप में सोचने का जो ढंग हमें मिला हुआ है या हमने जो ढंग अपना रखा है, उसके था । कोई किसी को मार । फिर भी वध को पहला अनुसार तो सबसे पहला परीषह वध परीषह होना चाहिए दे या वध कर दे, तो उसके बराबर तो क्षुधा - परीषह नहीं परीषह न गिन कर भूख को ही पहला परीषह क्यों गिना है ? आज भी हजारों आदमी ऐसे मिलेंगे जो भूख से बुरी तरह छटपटा रहे हैं । वे चाहते हैं कि भूख की ज्वाला में तिल-तिल करके भस्म होने की अपेक्षा यदि उन्हें कल्ल कर दिया जाए तो अधिक अच्छा हो । घुट-घुट कर रोज-रोज मरने, और एक-एक प्राण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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