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अहिंसा-दर्शन
यदि किसी आदमी को १०४ डिग्री ज्वर चढ़ा हुआ था । औषधि से या स्वभावतः, दूसरे दिन वह १०० डिग्री रह गया। किसी ने उससे पूछा-क्या हाल है ? तब वह कहता है कि आराम है । आप कहेंगे, जब सौ डिग्री ताप है तो आराम कहाँ है ? हां, जितना ज्वर है उतना तो है ही, उससे इन्कार नहीं है, परन्तु जितनी कमी हुई है, उतना तो आराम ही हुआ, या नहीं ?
दुर्भाग्य से जो पाप है, उसकी तरफ दृष्टि तो जाती है, किन्तु जितना पाप कम होता जाता है, उतने ही अंशों में पाप से बचाव भी होता है, इस कमी की ओर किसी की दृष्टि ही नहीं जाती । एक आदमी मांसाहार से फलाहार पर आ जाता है तो उसमें भी पाप है, पर वह अल्प है। सिद्धान्ततः मांसाहार नरक का द्वार है और फलाहार नरक का द्वार नहीं है । जब वह नरक का द्वार नहीं है तो उसमें उतने ही अंशों में पवित्रता आ जाती है; जैसे-१०४ से १०० डिग्री ज्वर रहने पर तथाकथित रोगी को आराम होता है । इस तथ्य को स्वीकार करने में हिचक क्यों होती है ?
यदि साधु को दुनिया से कोई मतलब नहीं, तो उसे व्याख्यान देने की क्या आवश्यकता है ? यदि साधु व्याख्यान नहीं देगा तो सामान्यजन घर से स्थानक तक आएँगे भी नहीं; फलतः आने-जाने का आरम्भ भी नहीं होगा। जब वह व्याख्यान देता है, तभी तो कोई उसके पास आता है । फिर तो यह आरम्म उसके व्याख्यान से ही सम्बन्धित हुआ न ? जब कोई साधु-दर्शन को जाता है और प्रवचन सुनता है तो इसका परिणाम क्या माना जा सकता है ? साधु के पास जाने में हिंसा हुई है, किन्तु जो प्रवचन सुना, उपदेश सुना उससे तो धर्म हुआ, उस धर्म का भी कोई अर्थ है या नहीं ? शुभ और अशुभ
भगवान् महावीर के दर्शन करने के लिए राजा श्रेणिक कितने समारोह के साथ गया था? ऐसा करने में यदि एक अंश में पाप भी हुआ, तो दूसरी ओर भगवान् के दर्शन करने के फलस्वरूप अपूर्व धर्म भी हुआ, यह भी तो बताया गया है । इसे लोग क्यों भूल जाते हैं ?
साधु ने साधारण लोगों से शास्त्र-स्वाध्याय के लिए कहा; वे स्वाध्याय करने लगे। इस सत्प्रवृत्ति में भी मन, वचन और काय की चंचलता एवं चपलता होती ही है न ? और जहाँ चंचलता है, वहां आश्रव है, उस अंश में संवर नहीं है । यदि योगों का सर्वथा निरोध हो जाए तो चौदहवें गुणस्थान की भूमिका प्राप्त हो जाए, तब तो मोक्षप्राप्ति में देर न लगे । ऐसी स्थिति में विचार करना ही होगा कि शास्त्रस्वाध्याय करते समय जो योग है, वह शुभयोग है या अशुभयोग? इसी तरह भगवान् ऋषभदेव ने जो कुछ भी सिखाया, वह शुभयोग में सिखाया या अशुभयोग में ? यदि वे अशुभयोग में सिखाते तो क्रोध, मान, माया और लोम की दुष्प्रवृत्ति
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