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अहिंसा और कृषि
दिया । विवाह करना धर्म नहीं है, राजा बनना धर्म नहीं है, उसी प्रकार दान देना भी धर्म नहीं है।
अतीत की कुछ बातें प्रायः आज भी सुनी जाती हैं। और ठीक ही सुनी जाती हैं कि भगवान महावीर ने अपने माता-पिता की कितनी बड़ी सेवा की ? पर इसके लिए भी जो भगवान् ऋषभदेव के द्वारा किए गए कर्मों को मात्र एक गृहस्थ के कर्म बताते हैं, उसी भाषा का प्रयोग किया जाता है कि वे गृहस्थावास में थे, अतः सेवा करनी ही पड़ी । साथ ही यह भी कहते हैं कि माता-पिता की सेवा में धर्म होता, तो साधु बन कर भी क्यों नहीं की ? इससे सिद्ध होता है कि सेवा करना संसार का कार्य है और उससे पाप का ही बन्ध होता है । गलत धारणा
__ यदि अन्य लोग भी इसी भाषा का प्रयोग करते हैं, अर्थात् तीर्थङ्करों के वर्षी दान में और माता-पिता की सेवा में भी एकान्तपाप मानते हैं तो यही कहना पड़ेगा कि फिर उनमें और अन्य लोगों में क्या अन्तर है ? बस फिर तो झगड़ा सिर्फ ऊपर के शब्दों पर है अन्दर में बात एक ही है। आगे वे यह भी कहते हैं कि यदि एक वर्ष तक दान दिया तो बारह वर्ष तक घोर उपसर्गों और परीषहों के रूप में उसका कटु, कुफल भी भोगना पड़ा। इस प्रकार भगवान् महावीर को जो विभिन्न प्रकार के कष्ट सहने पड़े, वे दान के फल थे, जो उन्होंने बतला दिए हैं। पर अन्य विचारकों के मन्तव्य तो इससे सर्वथा भिन्न हैं ।
जीव-रक्षा के सम्बन्ध में भी उनका यही अभिमत है कि भगवान महावीर ने जब गौशालक को बचाया, तब वे छद्मस्थ थे, केवल-ज्ञानी होने पर नहीं बचाया। अतः मरते जीव को बचाना भी एकान्त पाप है।
इस प्रकार दूसरे लोग भी भूल से कहते हैं कि भगवान् ऋषभदेव ने कृषि आदि कलाओं का जो उपदेश दिया था, वह गृहस्थावास में ही दिया था, केवल-ज्ञानी हो कर नहीं, अतएव कृषि में महारंभ है-घोर पाप है। सही निर्णय
उपर्युक्त विषय विचारधाराओं का अध्ययन करने पर यही उचित जान पड़ता है कि इस सम्बन्ध में साफ-साफ निर्णय हो जाना चाहिए । विचारकों के मन में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रहे। परन्तु एक भ्रान्त विचारशृखला सामने है । छद्मस्थ अवस्था में किए हुए तीर्थङ्करों के कर्तव्यों को दान को, माता-पिता की सेवा को और जीव-रक्षा आदि सत्कार्यों को---कुछ लोग पाप नहीं मानते हैं । परन्तु जब कृषि का प्रश्न उपस्थित होता है तो तुरन्त वे पाप मानने वालों की पंक्ति में खड़े हो जाते हैं ? क्या यही निष्पक्ष निर्णय की स्थिति है ? नहीं। सभी को सही निर्णय पर आना चाहिए।
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