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________________ हिंसा और कृषि भगवान् ऋषभदेव ने कृषि तथा उद्योग-धन्धों की शिक्षा दी और विकट परिस्थिति में उलझी हुई उस युग की संतप्त जनता को अपने हाथों अपना जीवन-निर्माण करने की कला सिखलाई । भगवान् ने उस समय जो कुछ सिखलाया, वह आज गौरव २६ विषय है । जब ऐसे प्रसंग आते हैं तो जैनसमाज कलंकित नहीं होता, अपितु गौरवान्वित ही होता है । जब कभी भी भारत के विद्वानों के सामने, चाहे वे राजनैतिक नेता रहे हों या सामाजिक नेता; इस प्रसंग को छेड़ा जाता है, तो उनके हृदय में जैनधर्म के प्रति अगाध आदर और गौरव का भाव जागृत हो जाता है, विवेक और विचार की ज्योति चमकती हुई देखी जाती है । इस रूप में भगवान ऋषभदेव का जीवन जैन समाज को इतना गौरवशाली जीवन मिला है कि उसकी उद्घोषणा केवल बीसतीस के सीमित दायरे में ही नहीं करना चाहिए । जहाँ-जहाँ यह आवाज पहुँचेगी हमें नीचा नहीं, ऊँचा ही दिखलाएगी । यहाँ तक कि जैनसंस्कृति को, जैनगौरव को चार चाँद लगा देगी और उत्थान के उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित कर देगी । जो लोग मानव जीवन का निर्माण करने और सुधारने की बात सोचते हैं, उन्हें जब जैन-धर्म की तरफ से यह प्रकाश मिलता है, तो वे गद्गद् हो जाते हैं और मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं कि जैन-धर्म ने समाज की रूढ़ियों का उन्मूलन किया है, समाज की रूढ़ियों का उन्मूलन किया है, समाज को प्रगति के पथ पर प्रशस्त किया है, और भारत की महान् सेवाएँ की हैं। तलंया नहीं, गंगा जैन-धर्म गाँव की तलैया नहीं है । गाँव के बाहर की तलैया में इधर-उधर से आ कर गन्दा पानी जमा हो जाता है, और फिर वह तलैया सड़ने लगती है । वह खुद सड़ती है और अपनी सड़ांद से आस-पास के लोगों का सर्वनाश भी कर डालती है । एक वह तलैया है, जिसे बस अवरुद्ध ही रहना है और निरन्तर सड़ते ही रहना है, कभी साफ निर्मल नहीं होना है। दूसरी ओर गंगा का बहता हुआ निर्मल पानी है । गंगा जहाँ भी जाएगी, लोगों को सुख-सुविधा भेंट करती जाएगी। उसे सड़ना नहीं है, बदबू नहीं फैलाना है, अपितु लोगों को सुखद जीवन ही देना है । जैन-धर्म गंगा का बहता हुआ निर्मल प्रवाह है । यदि उसे चारों ओर से समेट कर, एकांगी बना कर एक संकुचित दायरे में रोक कर रखा जाएगा तो वह अवश्य सड़ेगा, फलतः उसमें चमक एवं स्वच्छता नहीं रह जाएगी । वह तो गंगा के समान बहता हुआ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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