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________________ २६८ अहिंसा-दर्शन दिया कि ये लाखों-करोड़ों पशु-पक्षी मौजूद हैं, इन्हें मारो और खा जाओ । उन्होंने शिकार करके जीवन-निर्वाह कर लेने की शिक्षा क्यों नहीं दी ? पशु-पक्षियों को मारने और शिकार खेलने की तरह खेती को भी महारंभ मानने वाले इस प्रश्न का क्या उत्तर देते हैं ? पशुओं को मार कर खाना महारंभ होने से नरक का कारण है और यदि खेती भी महारंभ होने के साथ-साथ नरक-गति का कारण है तो भगवान् पशु-पक्षियों को मार कर खाने की, अथवा दोनों उपायों को आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाने की शिक्षा दे सकते थे। परन्तु भगवान् ने ऐसा नहीं किया। इसके पीछे कोई रहस्य होना चाहिए और वह यही है कि अहिंसा की दृष्टि से वास्तव में खेती महारंभ नहीं है, अल्पारंभ है । भगवान् ने अल्पारंभ के द्वारा जनता की जटिल समस्या हल की। उन्होंने सूक्ष्म दृष्टि से देखा-यदि देसा प्रयोग न किया गया, जनता को अल्पारंभ का पेशा न सिखाया गया तो वह महारंभ की ओर अग्रसर हो जाएगी। लोग आपस में लड़-झगड़ कर मर मिटेंगे, एक-दूसरे को मार कर खाने लगेंगे । इस प्रकार भगवान् ने महारंभ की अनिवार्य एवं व्यापक सम्भावना को खेती-वाड़ी सिखा कर समाप्त कर दिया और जनता को आर्य-कर्म की सही दिशा दिखाई। मांस खाना, शिकार खेलना आदि अनार्य-कर्म भगवान् ने नहीं सिखाए; क्योंकि वे हिंसारूप महारंभ के प्रतीक थे, जबकि कृषि-उद्योग अहिंसारूप अल्पारंभ का प्रतीक है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जिस समय भगवान् युगलियों को खेती करना सिखा रहे थे, उस समय दाँय करते वक्त (खलिहान में धान्य के सूखे पौधों को कुचलवाते समय) बैल अनाज खा जाते थे । अतः भगवान् ने बैलों के मुंह सर मुसीका (छींका) बाँधने की सलाह दी। उसी के कारण भगवान् को अन्तराय-कर्म का बन्धन हुआ, फलतः उन्हें एक वर्ष तक आहार नहीं मिला । परन्तु यह एक कल्पना है । इसके पीछे किसी विशिष्ट एवं प्रामाणिक ग्रन्थ का आधार भी नहीं मालूम होता । क्योंकि विवेक के अभाव-वश मनुष्य की सोचने की बुद्धि प्रायः कम हो जाती है, तब इस तरह की मनगढन्त कहानियाँ गढ़ ली जाती हैं । यदि भगवान् एक वर्ष तक खाने के फेर में पड़े रहते तो एकनिष्ठ तपस्या कैसे कर पाते ? हित की दृष्टि आचार्य अमरचंद्र ने पद्मानंद महाकाव्य के रूप में जो ऋषभ-चरित्र लिखा है। जैसाकि उन्होंने लिखा है भगवान् ऋषभदेव के साथ चार हजार अन्य लोगों ने भी दीक्षा ली थी। उन्हें मालूम हुआ कि भगवान् तो कुछ बोलते नहीं हैं, कहाँ और कैसे भोजन करें, कुछ मालूम ही नहीं होता है। वे निस्पृहभाव से वन में ध्यानस्थ खड़े हैं। तब वे सभी घबड़ा कर पथ-भ्रष्ट हो गए, साधना के पथ से विचलित हो गए। अस्तु, भगवान् ने देखा कि भूख न सह सकने के कारण सारे साधक गायब हो गए हैं । फलतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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