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________________ कृषि : अल्पारम्भ और आर्यकर्म है २६१ कक्षाएं ____ इसी प्रकार गृहस्थ-जीवन की भी अनेक कक्षाएँ हैं । और उन कक्षाओं के भी कई स्तर हैं । ऐसा नहीं है कि गृहस्थ छोटा है, अतः वह नगण्य है और विष का टुकड़ा है। परिस्थितिवश गृहस्थ, साधु की अपेक्षा नीचा होते हुए भी किसी विषय में अपेक्षाकृत ऊँचा है । जो गृहस्थ जीवन के मैदान में विवेकपूर्वक चलता है, जिसके हृदय में प्रत्येक प्राणी के लिए दया का झरना बहता है, जो महा-हिंसा से दूर रह कर अपनी जीवन-यात्रा तय कर रहा है, वह अपने श्रावक के कर्तव्यों को दृढ़ता से पूरा कर रहा है। भले ही वह धीमे कदमों से चलता हो, पर अभीष्ट लक्ष्य की ओर उसकी गति नियमित और निरन्तर अवश्य है । यहाँ पुरानी परम्परा की ओर भी दृष्टिपात कर लेना चाहिए , वह क्या कहती है ? वह ऐसे गृहस्थ को, जो अपनी जीवन-नौका के साथ-साथ दूसरों की जीवननौका को भी पार करता है, कभी भी पापी और विष का टुकड़ा नहीं बतला सकती। कुछ लोगों का ऐसा विचार है कि गृहस्थ को अपनी रोटी कमानी पड़ती है, वस्त्र जुटाना पड़ता है, समय आने पर अपने पड़ोसी, समाज और राष्ट्र की रक्षा के लिए कठोर कर्तव्य भी अदा करना पड़ता है, इसलिए वह तो पाप में डूबा हुआ है। परन्तु यदि बुद्धि की कसौटी पर गृहस्थ-जीवन को कस कर देखा जाए तो विदित होगा कि विवेकवान् गृहस्थ यदि साधु के गुणस्थानों से नीचा है तो प्रथम चार गुणस्थानों से ऊँचा भी है । संकुचित दृष्टिकोण होने के कारण दुर्भाग्य से हमारा ध्यान नीचाई की ओर तो जाता है, पर ऊँचाई की ओर कभी नहीं जाता । गृहस्थ का स्तर इसीलिए कुछ लोगों ने एक मनगढन्त सिद्धान्त निकाला है कि साधु की अपेक्षा गृहस्थ का स्तर नीचा है, इसलिए उनका सत्कार-सम्मान करना, उसकी सेवाशुश्र षा आदि करना, दूसरे गृहस्थ के लिए भी संसार का मार्ग है। वह हिंसा, असत्य, चोरी और कुशील का निन्दनीय मार्ग है और पतन की पगडंडी है । मेरे विचार से इस हीन विचार के पीछे अज्ञान चक्कर काट रहा है और विवेक की रोशनी नहीं है । सुपात्र और कुपात्र की अनेक भ्रमपूर्ण धारणाएँ भी इसी अज्ञान के कुपरिणाम हैं । गृहस्थ कुपात्र है, उसे कुछ भी देना धर्म नहीं है, साधु को देना ही एकमात्र धर्म है । इस प्रकार की कल्पनाएँ संकुचित विचारों द्वारा ही आई हैं। इस प्रकार एकान्ततः छोटे-बड़े के आधार पर धर्म और अधर्म का निष्पक्ष निर्णय कभी नहीं हो सकता। आखिर साधु भी, जोकि छठे गुणस्थान में है, सातवें गुणस्थान वाले से नीचा है । इसी प्रकार सातवें गुणस्थान वाला आठवें गुणस्थान वाले से नीचा है। केवल-ज्ञानी की भूमिका से तो सभी सामान्य साधु नीचे ही हैं। फिर पूछा जा सकता है कि तेरहवें गुणस्थान वाले अरिहन्त की भूमिका छोटी है या बड़ी ? यदि बारहवें गुणस्थान से वह ऊंची है तो चौदहवें गुणस्थान से नीची भी है। इस प्रकार की अपेक्षाकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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