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________________ २५४ अहिंसा-दर्शन अन्ततः आत्मा को केवलज्ञान का प्रकाश देता है। जो साधक विवेक का सहारा न ले कर धर्म की ऊँची-ऊँची बातें करता है, बिना आत्म-प्रकाश के, अन्धकार में टकरा कर गिर जाता है । धर्म का रहस्य विवेक के बिना समझ में नहीं आ सकता। एक भारतीय ऋषि ने कहा भी है-जो तर्क से किसी बात का पता लगाता है, वही धर्म को जानता है, दूसरा नहीं ।'५ ___ गणधर गौतम ने भी उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-“साधक की सहजबुद्धि ही धर्म-तत्त्व की सच्ची समीक्षा कर सकती है ।"६ बुद्धि का गज वस्तुतः जीवन का निर्माण विचार के आधार पर ही होता है । विचार के बाद ही हम किसी प्रकार का आचरण करते हैं, और विचार के लिए सर्वप्रथम विवेक की आवश्यकता होती है । अत: खेती आर्य-कर्म है या अनार्य-कर्म ? इस प्रश्न पर विचार करने के लिए सर्वप्रथम अपने विवेक-शुद्ध अन्तःकरण से ही उत्तर माँगना चाहिए । ___ जो किसान दिनभर चोटी से ऐड़ी तक पसीना बहाता है, अन्न उत्पन्न करके संसार को देता है, अपना सारा समय, परिश्रम और जीवन कृषि के पीछे लगा देता है, ऐसे अन्नोत्पादक और अन्नदाता के कर्म को यदि कोई अनार्य-कर्म कहे और उस अन्न को खा कर ऐशआराम से जिन्दगी बिताने वाले वह स्वयं आर्य-कर्मी होने का दावा करें; भला, इस निराधार बात को किसी भी विवेकशील का अन्तःकरण कब स्वीकार कर सकता है ? वह बुद्धि का गज डाल कर जरा अपने आपको नाप-तौल कर देखे कि कृषि, क्या प्रत्येक स्थिति में अनार्य-कर्म हो सकती है ? स्वानुभव के अतिरिक्त शास्त्र-प्रमाणों की भी इस सम्बन्ध में भी कोई कमी नहीं है । देवलोक के बाद उत्तराध्ययन सूत्र में उल्लेख किया गया है कि जो साधक अपना जीवन साधना में व्यतीत करता है, जो सदैव सत्कर्म के मार्ग पर चलता है और शुभ भावनाएँ रखता है, वह अपनी मानव-आयु समाप्त करके देवलोक में जाता है। देवलोक के जीवन के पश्चात् वह कहां पहुंचता है ? यह बताने के लिए वहाँ ये गाथाएँ दी गई हैं-.. जो साधक देवलोक में जाते हैं, वे जीवन में पुन: प्रकाश प्राप्त करने के लिए वहाँ से कहां जन्म लेंगे ? उत्तर-जहाँ खेती लहलाती होगी। सबसे पहला पद यह आया '४ वह सर्वदर्शी सर्वोत्कृष्ट ज्ञान, जिसके द्वारा त्रिकालवर्ती अनन्तानंत पदार्थों का एक साथ हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष प्रतिभास होता है । ५ “यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्म वेद नेतरः।" ६ “पन्ना समिक्खए धम्मतत्तं तत्तविणिच्छियं ।” For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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