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________________ अहिंसा - दर्शन गृहस्थ जिस किसी भी कार्य में हाथ डाले, यदि उसके पास विवेक का दिव्यप्रकाश है तो उसके लिए वह आर्य-कर्म होगा । इसके विपरीत यदि असावधानी से, अविवेक से और साथ ही अपवित्र भावना से वह कोई कार्य करता है, फिर चाहे वह दुकानदारी हो या घर की सफाई करने का ही साधारण काम क्यों न हो, तो वह अनार्य-कर्म करने वाला समझा जाएगा । जैन-धर्म आर्य-कर्म और अनार्य-कर्म की एक ही व्याख्या करता है, जो इस प्रकार है- 'विवेकपूर्वक, न्याय-नीतिपूर्वक किया गया कर्म 'आर्य-कर्म' है; और अन्याय से, अनीति से, छल-कपट से एवं दुर्भावना से किया जाने वाला कर्म 'अनार्य - कर्म' है । आर्य या अनार्य कर्म ? उदाहरणार्थ -- एक दुकानदार है । उसकी दुकान पर चाहे बच्चा आए, चाहे जिन्दगी के किनारे लगा बूढ़ा आए, चाहे कोई भोलीभाली ग्रामीण बहन आ जाए, यदि वह सभी को ईमानदारी के साथ सौदा देता है और अपना उचित मुनाफा रखकर सब को बराबर तौलता है, तब तो वह आर्य-कर्म की राह पर है। इसके विपरीत यदि वह दुकानदार सभी को मूंडने की कोशिश करता है, दूसरों का गला काटना प्रारम्भ कर देता है, नमूना कुछ और दिखाता है, किन्तु देता कुछ और है, तो वह अनार्य-कर्म की पगडंडी पर है | २८२ अध्यापक का कर्तव्य है -- बच्चों को सत्शिक्षा दे कर उनका चरित्र-निर्माण करना तथा विकासमार्ग पर प्रतिष्ठित करना । यदि वह अपने कर्त्तव्य के प्रति लापर वह रहता है, विद्यार्थी पढ़ें या न पढ़ें, इसकी उसे कोई चिन्ता नहीं है, और थोड़ी-सी भूल होते ही वह विद्यार्थी पर बेंतें बरसाता है, तो वह अनार्य कर्म की राह पर है । यदि कोई अध्यापक अपने काम में पूर्ण विवेक रखता है, अपनी जवाबदेही भलीभाँति समझता है और उसे पूरी भी करता है तो उसका वह कर्म अमृत - कर्म होगा ; वह उसका शुद्ध यज्ञ कहलाएगा | अन्याय, अनीतिः अविवेक और अज्ञान को निकाल कर जो कर्तव्य या कर्म किया जाता है, वही आर्य-कर्म है । आश्रव संवर आश्रव का काम कौन-सा है और संवर का काम कौन-सा है ? अर्थात् संसार का मार्ग क्या है और मोक्ष का मार्ग क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर आचारांग सूत्र बड़े ही सुन्दर ढंग से दिया गया है 'जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा ।' अर्थात् --- " जिस प्रवृत्ति से आश्रव होता है, जो कर्मों के आगमन का हेतु है, उस प्रवृत्ति में यदि विवेक का रस डाला गया है, अज्ञान को निकाल दिया गया है, न्याय-नीति और संयम की तन्मयता उसके पीछे रखी गई है, तो वही प्रवृत्ति संवर का हेतु बन जाती है । इसके विपरीत सामायिक, दया, पौषध आदि जो प्रवृत्तियाँ संवर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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