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अहिंसा-दर्शन
उनका आदर्श है- धर्म -प्रचार के द्वारा विश्वभर के प्रत्येक मनुष्य के हृदय में यह जचा दो कि वह 'स्व' में ही संतुष्ट रहे, 'पर' की ओर आकृष्ट होने का कदापि प्रयत्न न करे । पर की ओर आकृष्ट होने का अर्थ है— दूसरों के सुख-साधनों को देख कर लालायित हो जाना और उन्हें छीनने का दुःसाहस करना ।
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'स्व' की मर्यादा से बाहर ही खतरा
नदी जब तक अपने दो पाटों के बीच में बहती रहती है, तब तक उससे संसार को लाभ ही लाभ है, हानि कुछ भी नहीं। पर, ज्यों ही वह अपनी सीमा से हट कर आसपास के प्रदेश पर अधिकार जमाती है, बाढ़ का रूप धारण करती है, तो संसार में हाहाकार मच जाता है, प्रलय का दृश्य खड़ा हो जाता है । यही दशा मनुष्यों की है। जब तक सबके सब मनुष्य अपने - अपने 'स्व' में प्रवाहित रहते हैं, तब तक कुछ अशान्ति नहीं है, लड़ाई-झगड़ा नहीं है । अशान्ति और संघर्ष का वातावरण वहीं पैदा होता है, जहाँ मनुष्य 'स्व' से बाहर फैलना शुरू करता है, दूसरों के अधिकारों को कुचलता है, और दूसरों के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाने लगता है ।
भगवान् महावीर ने इस दिशा में बड़े स्तुत्य प्रयत्न किए हैं। वे अपने प्रत्येक गृहस्थ शिष्य को अपरिग्रह की मर्यादा में सर्वदा 'स्व' में ही सीमित रहने की शिक्षा देते हैं । व्यापार, उद्योग आदि क्षेत्रों में उन्होंने अपने अनुयायियों को अपने न्यायप्राप्त अधिकारों से कभी आगे बढ़ने की इजाजत नहीं दी । प्राप्त अधिकारों से आगे बढ़ने का अर्थ है - अपने दूसरे साथियों के साथ संघर्ष में उतरना ।
जैन संस्कृति का अमर आदर्श है- प्रत्येक मनुष्य अपनी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित साधनों का ही सहारा ले कर उचित प्रयत्न करे । आवश्यकता से अधिक किसी भी सुखसामग्री का संग्रह कर रखना, जैनसंस्कृति में चोरी है । व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र लड़ते क्यों हैं ? इसी अनुचित संग्रहवृत्ति के कारण दूसरों के जीवन और सुखसाधनों की उपेक्षा करके मनुष्य कभी सुख-शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता । अहिंसा के बीज अपरिग्रहवृत्ति में ढूंढ़े जा सकते हैं । एक दृष्टि से अहिंसा और अपरिग्रहवृत्ति दोनों पर्यायवाची शब्द हैं ।
गृहस्थजीवन का कर्त्तव्य
'आनन्द' श्रावक अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक श्रावक ही रहे, साधु नहीं बने । फिर भी शास्त्र में उनके जीवन की कहानी विस्तार के साथ दी गई है । भगवान् महावीर के चरणों में पहुँच कर आनन्द ने जो आदर्श साधना की, यद्यपि वह श्रावक - जीवन की ही साधना थी, फिर भी वह इतनी महान् थी कि शास्त्र में उसका वर्णन करना आवश्यक समझा गया । इसका मुख्य कारण था कि गृहस्थ-दशा में रह कर भी आनन्द ने अपने कर्त्तव्य को शानदार ढंग से पूरा किया। उनकी अहिंसा कैसी थी ? उनका सत्य कैसा था ? उनके जीवन की पवित्रता कितनी उज्ज्वल थी ? और दूसरों
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