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________________ पवित्रता से सामाजिक हिंसा की प्रतिष्ठा २२ कभी हम अपने जीवन के अन्तरंग में पहुँचते हैं और अपने जीवन के मर्म को छूने की चेष्टा करते हैं तो प्रतीत हुए बिना नहीं रहता कि जीवन की पगडंडियाँ भिन्न-भिन्न नहीं । सब की एक ही राह है और वह है-जीवन की पवित्रता । बाहर में भले ही हम अलग-अलग रूप में चलते हैं और अलग-अलग रूप में अपनी मंजिल भी तय कर रहे हैं - सम्प्रदाय के रूप में, धर्म, मत, पंथ और जातियों के रूप में बाहर की राहें बहुत-सी हैं, किन्तु, जीवन के अन्दर की राह तो एक ही है । पवित्रता की राह जीवन की पवित्रता के पथ पर जो पथिक हैं, वे अपना उत्थान करते हैं । जो इस राह के राही नहीं है, वे बाहर में चाहे जैसा जीवन बिताएँ, अन्तरंग में यदि पवित्रता की भावना नहीं है, तो जीवन विकास की सही दिशा में दृढ़ता के साथ कदम नहीं बड़ा सकते | वस्तुत: अहिंसा ही पवित्रता की सबसे बड़ी एवं सुनिश्चित पगडंडी है। हमें जो मनुष्य-जीवन मिला है वह सुगमता से नहीं मिला है; अपितु पूर्व-जन्म के संचित पुण्य कर्मों तथा कठिन साधना के प्रतिफल में मिला है। अतः इसकी सार्थकता के लिए उस पर विचार करना जरूरी है कि इसकी उपयोगिता तथा उद्देश्य क्या है ? हमें इस जीवन का उपयोग संसार के कल्याण के लिए करना है, जनता के दुःख-दर्द को कम करने के लिए करना है, अपने जीवन को सद्गुणों की सुगन्ध से पूर्ण कर दुनिया में फैली सामाजिक कुरीतियों की दुर्गन्ध को दूर करने के लिए करना है ; अथवा हमें इस नर-जन्म के द्वारा संसार की प्रगति में रोड़े अटकाना है और समाज की कठिनाइयों में अपनी ओर से एक नई बढ़ा कर कठिनाइयों के जाल को सुदृढ़ करना है ? कांटे चुन कर अलग करो इस सम्बन्ध में भगवान् महावीर का एक ही सुनिश्चित मार्ग है जिसके लिए उन्होंने कहा है- " तुमने जो जीवन पाया है उसका उपयोग प्राणि-संसार की अन्तरंग और बाह्य दोनों ही तरह की समस्याओं को सुलझाने के लिए करो। यदि समस्याएँ पारिवारिक भूलों से पैदा हुई हैं तो उन भूलों की खोज करो । यदि वे समाज की भूलें हैं तो उन्हें भी ठीक करो। इसी प्रकार से तुम्हारे देश में या आस-पास के संसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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