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________________ २१ जातिवाद : सामाजिक हिंसा का अग्रदूत जीवन में हिंसा का रूप एक ही नहीं होता है, जैसा कि पहले बताया जा चुका है । वह सामाजिक, राष्ट्रीय धार्मिक तथा अन्य देशों में विभिन्न रूपों में देखी जाती है । अतएव जहाँ कहीं और जिस किसी भी रूप में हिंसा हो रही है, उसे वहाँ उसी रूप में समझने की आवश्यकता है । इसके बिना अहिंसा के राज मार्ग पर ठीक तरह से चला नहीं जा सकता । अपने बौद्धिक विश्लेषण के द्वारा जो अन्धकार को अन्धकार समझ लेता है और साथ ही यह भी जान लेता है कि वह अन्धकार जीवन को प्रगति की प्रेरणा देने वाला नहीं है, वह प्रकाश में आने का प्रयत्न कर सकता है और फिर अपनी जीवन-यात्रा अच्छी तरह तय भी कर सकता है । जहाँ अन्धकार है वहाँ भाँतिभाँति की गड़बड़ी पैदा होती रहती हैं । घर में चोरों के घुस आने पर घर वाले लड़ने को तैयार होते हैं, चोरों से, किन्तु लाठियाँ बरसाने लगते हैं, अपने ही घर वालों पर । हिंसा : एक अन्धकार अन्धकार में अपने-पराये का कोई भेद मालूम नहीं देता । इस प्रकार के अन्धकार को जीवन न मान कर मृत्यु का सन्देश समझना चाहिये । सफल जीवन के लिए तो दिव्य प्रकाश ही चाहिए। हिंसा भी एक प्रकार का अन्धकार है और आज वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में फैला हुआ है । किन्तु यह निश्चित है कि जब तक यह जीवन को किसी भी रूप में स्पर्श किये रहेगा, तब तक जीवन का सही मार्ग नहीं मिलेगा | अतएव यदि प्रकाश में प्रवेश करना है, तो इसके लिये अन्धकार का भी समुचित ज्ञान प्राप्त करना होगा । जब तक हम हिंसा के अन्धकार को भलीभाँति न समझ लें, तब तक अहिंसा के प्रकाश की उज्ज्वल किरणें हमें प्राप्त नहीं हो सकतीं । ये विकल्प तुच्छ हैं, हिंसाजनक हैं जैनधर्म एक अध्यात्मवादी धर्म । उसकी सूक्ष्मदृष्टि मानव आत्मा पर टिकी हुई है । वह दृष्टि मनुष्य के शरीर, इन्द्रिय, बाह्यवेष, लिंग, वंश और जाति - इनकी दीवारों को भेदती हुई, सूक्ष्म आत्मा को ग्रहण करती है । वह आत्मा की बात करता है, आत्मा की भाषा बोलता है । सुख-दुःख के विकल्प, उच्चता-नीचता के मानदण्ड और यहाँ तक कि लोक-परलोक की चिन्ता से भी परे, वह शुद्ध अध्यात्म की बात करता है । इसका मतलब यह है कि संसार के जितने भी बाह्य विकल्प हैं, ऊँच-नीच , चाहे वे जाति की दृष्टि से हों, चाहे धन की दृष्टि से हों, शासन अधिकार की दृष्टि से हों अथवा अन्य किसी भी दृष्टि से हों, वहाँ ये विकल्प तुच्छ पड़ जाते हैं, ये सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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