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________________ अहिंसा-दर्शन मान कर न किसी का घात करे न कराए।११ सभी प्राणी सुख के चाहने वाले हैं, इनका जो दण्ड से घात नहीं करता है, वह सुख का अभिलाषी मानव अगले जन्म में सुख को प्राप्त करता है । १२ इस प्रकार तथागत बुद्ध ने भी हिंसा का निषेध करके अहिंसा की प्रतिष्ठा की है। तथागत बुद्ध का जीवन 'महाकारुणिक जीवन' कहलाता है । दीन-दुखियों के प्रति उनके मन में अत्यन्त करुणा भरी थी, दया का सागर लहरा रहा था। भगवान महावीर की भाँति तथागत बुद्ध भी श्रमण-संस्कृति के एक महान् प्रतिनिधि थे। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक कारणों से होने वाली हिंसा की आग को प्रेम और शान्ति के जल से शान्त करने के सफल प्रयोग किये, और इस आस्था को सुदृढ़ बनाया कि समस्या का प्रतिकार सिर्फ तलवार ही नहीं, प्रेम और सद्भाव भी है । यही अहिंसा का मार्ग वस्तुतः शान्ति और समृद्धि का मार्ग है । वैदिकधर्म में अहिंसा-भावना वैदिकधर्म भी यज्ञकाल से उत्तरोत्तर अहिंसा-प्रधान धर्म होता गया है। "अहिंसा परमो धर्मः" के अटल सिद्धान्त को सम्मुख रख कर इसमें भी अहिंसा की विवेचना की गई है। अहिंसा ही सबसे उत्तम एवं पावन धर्म है, अतः मनुष्य को कभी भी, कहीं भी और किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए।१3 जो कार्य तुम्हें पसन्द नहीं है, उसे दूसरों के लिए कभी न करो।१४ इस नश्वर जीवन में न तो किसी प्राणी की हिंसा करो और न किसी को पीड़ा पहुँचाओ । बल्कि सभी आत्माओं के प्रति मैत्री-भावना स्थापित कर विचरण करते रहो । किसी के साथ वैर न करो।१५ जैसे मानव को अपने प्राण प्यारे हैं, उसी प्रकार सभी प्राणियों को अपनेअपने प्राण प्यारे हैं । इसलिए जो लोग बुद्धिमान और पुण्यशाली हैं, उन्हें चाहिए कि ११ यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं । अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न धातये ।। -सुत्तनिपात, ३।३१७।२७ १२ सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन न विहिंसति । . अत्तनो सुखमेसानो पेच्चसो लभते सुखं । --- उदान, पृ० १२ १३ अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः । तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् मा हिस्यान्मानुषः क्वचित् ।। -महाभारत-आदिपर्व, १११११३ १४ आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । -मनुस्मृति १५ न हिंस्यात् सर्वभूतानि, मैत्रायणगतश्चरेत् । नेदं जीवितमासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥ -महाभारत-शान्तिपर्व २७८१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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