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________________ हिंसा की रीढ़ : प्रमाद १८७ ऊपरकथित विवेचन से क्या आशय फलित हुआ? हमारा मन, वाणी और शरीर भी समुद्र की भांति हिलोरें मारता है और उसमें निरन्तर हलचल मची रहती है। चाहे कोई जीव एकेन्द्रिय हो, द्वीन्द्रिय हो, त्रीन्द्रिय हो, चतुरिन्द्रिय हो अथवा पंचेन्द्रिय हो, परन्तु जब तक उसमें संसारी दशा का यौगिक अस्तित्व है, तब तक कम्पन होना अनिवार्य है। नीचे की भूमिकाओं में चचित मन का प्रत्येक कम्पन हिंसा है । और जब कम्पन की कोई गिनती नहीं की जा सकती, तो हिंसा के भेदों की गणना भी कैसे की जा सकती है ? फिर भी स्थूल रूप से उनकी गणना की गई है । इस विषय की पूरी छान-बीन करके आचार्यों ने बतलाया है कि सामान्यबुद्धि तथा सामान्यदृष्टि वाला प्राणी हिंसा के अनन्तरूपों को स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकता, फिर भी जो स्थूलरूप, जितने अंशों में समझ में आ सकें, उनको ध्यान में अवश्य रखना चाहिए। हिंसा के तीन स्तर सबसे पहले हिंसा के तीन स्तर हैं- (१) संरम्भ, (२) समारम्भ और (३) आरम्भ । जितनी भी बातें हैं, क्रियाएँ हैं या हरकतें हैं, वे सबसे पहले मन में जन्म लेती हैं और अध्यवसायों में अंकुरित होती हैं। हमारा सारा जीवन मानसिक अध्यवसायों द्वारा ही प्रेरित और संचालित होता है। अतएव वे अध्यवसाय ही मुख्य रूप से हिंसा की जन्म-भूमि हैं । इस प्रकार सबसे पहले हिंसा के विचार उत्पन्न होते हैं और फिर हिंसा करने के लिए सामग्री जुटाई जाती है। इस स्थिति में हिंसा के विचारों का उत्पन्न होना 'संरम्भ' कहलाता है; और हिंसा के लिए सामग्री जुटाना 'समारम्भ' कहलाता हैं । इन दोनों क्रियाओं के बाद 'आरम्भ' का नम्बर आता है । 'आरम्भ' का क्रम हिंसा के प्रारम्भ से ले कर अन्तिम मार देने तक चलता है ___इस प्रकार हिंसा के तीन भेद हुए। अब देखना चाहिए कि हिंसा का जो संकल्प या प्रयत्न किया जाता है, वह क्यों किया जाता है ? उत्तर में कहना है किअन्तर्हृदय की दूषित भावनाओं की प्रेरणा से हिंसा का संकल्प होता है, हिंसा की सामग्री जुटाई जाती है और अन्त में उन्हीं भावनाओं से बल पा कर हिंसा करने का सक्रिय प्रयत्न किया जाता है। प्रश्न उठता है, वे भावनाएँ क्या हैं ? उन्हें खोजने का प्रयत्न करना चाहिए। वे भावनाएँ चार प्रकार की हैं और वस्तुतः वे दुर्भावनाएँ हैं--क्रोध, मान, माया और ४ तुलना मनोपूव्वंगमा धम्मा, मनोसेट्ठामनोमया। मनसा चे पदुद्रेन, भासति वा करोति वा ॥ --धम्मपद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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