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अहिंसा के संदर्भ में धर्मयुद्ध का आदर्श
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धर्मयुद्ध अन्ततः योद्धा के लिये स्वर्ग के द्वार खोलता है-'स्वर्गद्वारमपावृतम्' । यह वह केन्द्र है, जहाँ भारत के प्रायः सभी तत्त्वदर्शन और धर्म एकमत हैं।
मैं यह जो विश्लेषण कर रहा हूँ, क्यों कर रहा हूँ ? इसका कारण यह है कि अहिंसा-हिंसा के विश्लेषण का दायित्व जैनसमाज के ऊपर ज्यादा है, चूंकि जैनपरम्परा का मूलाधार ही अहिंसा है। भगवान महावीर ने अपने तत्त्वदर्शन में हिंसा और अहिंसा का विश्लेषण किस आधार पर किया है ? भगवान् के अहिंसा-दर्शन की आधारशिला कर्ता की भावना है । बात यह है कि ये जो युद्ध होते हैं, हिंसाएँ होती हैं, आदमी मरते हैं, इन सबकी गिनती करने का कोई सवाल नहीं है । सवाल तो सिर्फ यह है कि आप जो युद्ध कर रहे हैं, वह किस उद्देश्य से कर रहे हैं ? आपके संकल्प क्या हैं ? आपके भाव क्या हैं ? आपका आन्तरिक परिणाम क्या है ? राम युद्ध करते हैं रावण से, राम का क्या संकल्प है? नारीजाति पर होने वाले अत्याचारों का प्रतिकार करना ही तो ! राम के समक्ष एक सीता का ही सवाल नहीं है; अपितु हजारों पीड़ित सीताओं के उद्धार का सवाल है । राम एक आदर्श के लिये लड़ते हैं। और रावण जो युद्ध कर रहा है, उसका क्या संकल्प है ? उसका संकल्प है वासना का, दुराचार का। श्रीकृष्ण के नेतृत्व में पांडव युद्ध कर रहे हैं किसलिए ? केवल अपने न्याय प्राप्त अधिकार के लिये । दूसरी ओर दुर्योधन भी युद्ध कर रहा है; किन्तु वह किस संकल्प से कर रहा है ? पाण्डवों के न्याय-प्राप्त अधिकारों को हड़पने के लिए। इन सारी चीजों पर विचार करके यदि आप देखेंगे तो इन सबका निर्णय अन्तर्जगत् के अन्दर जा कर हो जाता है । अन्तर्जगत् के अन्दर क्या परिणाम है, यह है विचारणीय प्रश्न ! जैसा कि मैंने पहले बताया है कि कभी द्रव्यहिंसा होती है, भावहिंसा नहीं होती। कभी मावहिंसा होती है, द्रव्यहिंसा नहीं होती । कभी दोनों ही होती हैं । उक्त चर्चा में भावहिंसा ही वस्तुतः हिंसा का मूलाधार है और भावहिंसा में भी हमें यह देखना पड़ेगा कि बड़ी हिंसा को रोकने के लिए, जो छोटी हिंसा की जा रही है, वह आवश्यक है या अनावश्यक ? स्पष्ट है कि जीवन में कुछ प्रसंग ऐसे आते हैं कि वह बिलकुल आवश्यक हो जाती है। बहुत बड़े अत्याचार, अनाचार, दुराचार, अन्याय एवं अधर्म को रोकने के लिए विचारकों को छोटी हिंसा का आश्रय लेना ही होता है । समाज और राष्ट्र के प्रश्न का समाधान यों ही बेतुकी बातों से कभी नहीं होता है ।
__हिंसा केवल शरीर की ही हिंसा तो नहीं है । मन की हिंसा भी बहुत बड़ी हिंसा होती है । विचार कीजिए कि जब देश गुलाम हो जाए और जनता पराधीनता के नीचे दब जाए, तो ऐसी स्थिति में उसके शरीर की हिंसा ही नहीं, सबसे बड़ी मन की हिंसा भी होती है। पराधीन जनता का मानसिक स्तर, बौद्धिक स्तर, जीवन के उदात्त आदर्श, गुलामी के अन्दर इस तरह से पिस-पिसकर खत्म हो जाते हैं । नष्ट हो जाते हैं कि वह केवल एक मृत ढाँचाभर रह जाता है। पराधीन राष्ट्र के धर्मों,
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